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अनेकान्त 68/4, अक्टू-दिसम्बर, 2015 चिकित्सा पद्धति को इस अंग में समाहित किया गया है। प्राणावाय नामक इस पूर्व के पदों की संख्या दिगम्बर परम्परा में तेरह करोड़ और श्वेताम्बर परम्परा में एक करोड़ छप्पन लाख कही गयी है।
यह प्राणावाय प्रवाद पूर्व, इन्द्रिय, बल, आयु, उच्छवासों का, अपघात मरण अरु आयुबन्ध, आयु अपकर्षण आदि का। यह आयुर्वेद के अष्ट अंग, का विस्तृत वर्णन करता है। इसमें पद तेरह कोटि इसे पूजत ही स्वास्थ्य लाभ मिलता।
वर्तमान में दिगम्बर जैनाचार्य 'उग्रादित्य' विरचित 'कल्याणकारकम्' ग्रन्थ इस परम्परा के प्राचीनतम उपलब्ध साहित्य के रूप में प्राप्त है। विद्वानों ने पर्याप्त ऊहापोह कर आचार्य उग्रादित्य का समय ईस्वी नवीं शताब्दी निरूपित किया है। इस ग्रन्थ के प्रारंभ में आचार्य श्री ने आयुर्वेद शास्त्र की उत्पत्ति के विषय में एक सुन्दर इतिहास लिखा है। ग्रन्थ के मंगलाचरण में भगवान् आदिनाथ को प्रणाम करते हुए भरत चक्रवर्ती ने प्रार्थना की कि
देव त्वमेव शरणं शरणागताना मस्माकमाकुलधियामिह कर्मभूमौ। शीतातितापहिम वृष्टि निपीडितानां,
कालक्रमात्कदशनाशनतत्पराणाम्॥५॥ स्वामिन् इस कर्मभूमि की हालत में हम लोग ठंडी, गर्मी व बरसात आदि के पीड़ित होकर दुखी हुए हैं एवं कालक्रम से हम लोग मिथ्या, आहार-विहार का सेवन करने लगे हैं। इसीलिए देव, आप ही शरणागतों के रक्षक हैं।
नानाविधामयभयादतिदुःखिताना, माहार भेषजनि रुक्तिमजानतां न। तत्स्वास्थ्य रक्षण-विधानमिहातुराणां,
का वा क्रिया कथयतामथ लोकनाथ॥६॥ त्रिलोकीनाथ! इस प्रकार आहार, औषधि आदि के क्रम को नहीं जानने वाले व अनेक प्रकार के रोगों के भय से पीड़ित हम लोगों के रोग को दूर करने और स्वास्थ्य रक्षण करने का उपाय क्या है ? कृपया आप बतलावें।