Book Title: Anekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 316
________________ अनेकान्त 68/4, अक्टू-दिसम्बर, 2015 कैवल्य वृक्षों का औषधीय महत्व -सिंघई जयकुमार जैन (यह शोधलेख-अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, जो लेखक का श्रमसाध्य खोजपूर्ण कार्य है। 24 तीर्थकरों ने भिन्न भिन्न वृक्षों के नीचे तपस्या करके केवलज्ञान प्राप्त किया था अस्तु वे 'कैवल्यवृक्ष' कहलाते हैं। लेखक ने दिगम्बर एवं श्वेताम्बर परम्परा से विभिन्न पुराणों के आधार पर कैवल्यवृक्ष तालिका भी भेजी है जो यहाँ संदर्भित नही है। ___ - संपादक वर्तमान हुण्डावसर्पिणी काल में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव हुए। भोगभूमि की व्यवस्थाएं समाप्त हो रही थीं। कल्पवृक्षों की क्षमताएं घट रही थीं। जनमानस भयाक्रान्त था, ऐसे समय में ऋषभदेव (आदिनाथ) ने 8 विद्याओं के अन्तर्गत "कृषि" का ज्ञान कराया। उन्होंने आहार के लिए उपयोगी और स्वास्थ्य के लिए उत्तम अन्न फल और बनौषधियों की जानकारी दी। तत्कालीन भारतीय समाज के लिए 'शाकाहार' की महत्ता प्रतिपादित की। निरामिष भोजन बल, वीर्य वर्द्धक और शुद्ध है क्योंकि अहिंसा की एकमात्र शुद्धि का आधार है। शाकाहार पर्यावरण संरक्षण का भी कार्य करता है। वनस्पति के बिना जैविक प्रक्रिया असंभव है। कुछ वनस्पतियाँ ऐसी हैं जो औषधि एवं आहार दोनों में कार्य आती हैं। इनका शाकाहार तथा चिकित्सा की दृष्टि से महत्व है। इन वानस्पतिक आयुर्वेद औषधियों का चूर्ण, क्वाथ, लेप, अवलेह, वटी, आसव, अरिष्ट आदि रूप में उपयोग होता है। शाकाहारी सामाग्री का मूल स्रोत, वृक्ष, लता, गुल्म आदि हैं। भगवान् महावीर के पश्चात् उनके शिष्यों ने तीर्थकर की वाणी को बारह अंगों (द्वादशांग) के रूप में नाम दिया। इस द्वादशांग वाणी के अन्तिम अंग को "दृष्टिवाद" कहते हैं। दृष्टिवाद भी पांच भेदों में गर्भित है, जिनमें से एक भेद 'प्राणावाय' है। प्राणावाय में मनुष्यों के आध्यात्मिक, नैतिक और शारीरिक स्वस्थता के उपायों का वर्णन है। यह स्वस्थता आंतरिक भी और बाह्य भी और इसे प्राप्त करने के लिए आहार-विहार, परहेज तथा

Loading...

Page Navigation
1 ... 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384