Book Title: Anekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 318
________________ अनेकान्त 68/4, अक्टू-दिसम्बर, 2015 ___ इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से यह प्रमाणित होता है कि आयुर्वेद का कथन जैनधर्म व जैन साहित्य में विद्यमान है। आदि पुराणकार ने लिखा है कि “आयुरस्मिनविद्यतेऽनेन वा आयुर्विन्दतीत्यायुर्वेदः ५ समस्त लोकविधियों के स्वामी भरत मूर्तिमान आयुर्वेद ही हैं अर्थात् आयुर्वेद ने ही क्या भरत का शरीर धारण किया है। वनस्पतिकायिक जीवों की दस लाख जातियाँ होती हैं। आयुर्वेद के विशिष्ट जानकारों ने जिन जिन वनस्पतियों को अपने शोध का विषय बनाया, उनमें से कोई भी वनस्पति ऐसी नहीं थी, जिसमें औषधीय गुण न हो। निःसन्दिग्ध रूप से यह कहा जा सकता है कि, प्रत्येक वनस्पति के किसी न किसी अंश में रोगशमन की क्षमता होती है। आवश्यकता है, उसके गुण को पहचानने और नियंत्रित विधि से सेवन करने की। ___ तीर्थंकरों ने जिन वृक्षों के नीचे ध्यानस्थ हो, कठोर तपश्चरण द्वारा घातिया कर्मों को नष्टकर केवलज्ञान प्राप्त किया, उन वृक्षों को कैवल्यवृक्ष के नाम से अभिहित किया गया है। अनेक जैन ग्रन्थों में हमें इन कैवल्यवृक्षों की जानकारी प्राप्त होती है। दिगम्बरा परम्परा में 'तिलोयपण्णत्ति' सहित प्रथमानुयोग के अनेक ग्रन्थों में हम इनके बारे में जान सकते हैं। आइये ! हम इन वृक्षों के औषधीय गुणों को संक्षिप्त में जानने का प्रयास करेंगे। १. न्यग्रोध (बरगद) - भ. आदिनाथ का कैवल्यवृक्ष संस्कृत- वट, रक्तफल, श्रृंगी, न्यग्रोध, स्कन्धज, क्षीरी, वास, वैश्रवण, बहुपाद। हिन्दी- बड़, बरगद लेटिन- Ficusbenghalensis Linn बरगद का वृक्ष प्राणवायु विसर्जित करने में वनस्पति जगत में दूसरे स्थान पर है। बड़ कषाय शीतवीर्य, गुरु, ग्राही स्तम्भन, रुक्षण, वर्ण्य, मूत्र तथा तृष्णा, वमन, मूर्छा, रक्तपित्त, विसर्प, दाह और योनिदोष को दूर करने वाला है। श्री राकेश बेदी ने लिखा है कि यह गर्भ के लिए हितकर है। प्रदर, पेट के रोग, प्यास, दाह, खांसी, शोधन के उपद्रव, मूत्र और वीर्य रोग, गठिया, फोड़े-जख्म, विसर्प, कुष्ठ, खून बहने, सर्पपिष और मूर्धा के रोग में भी उपयोगी है।

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