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अनेकान्त 68/4 अक्टू- दिसम्बर, 2015
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सर्वार्थाधिकमागधीयविलसद् भाषापरिशेषोज्वलात्। प्राणावायमहागमादर्वितथं संगृह्य संक्षेपतः । उग्रादित्यगुरुर्गुरुर्गुरुगुणैरुद्भासि सौख्यास्पदं । शास्त्रं संस्कृतभाषया रचितवानित्येष भेदस्तयोः ॥ - कल्याणकारक, अ. २५, श्लो. ५४ अर्थात् सम्पूर्ण अर्थ को प्रतिपादित करने वाली सर्वार्थमागधी भाषा में जो प्राणावाय नामक महागम ( महाशास्त्र) है उससे यथावत् रूप से संग्रह कर उग्रादित्य गुरु उत्तम गुणों युक्त सुख के स्थानभूत इस शास्त्र की रचना संस्कृत भाषा में की।
जैनमतानुसार आयुर्वेद रूप संपूर्ण प्राणावाय के आद्य प्रवर्तक प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव हैं। इसके विपरीत वैदिक मतानुसार आयुर्वेद शास्त्र के आद्य प्रवर्तक या आद्युपदेष्टा ब्रह्मा हैं जिन्होंने स्रष्टि की रचना से पूर्व ही उसी प्रकार आयुर्वेद शास्त्र की अभिव्यक्ति की जिस प्रकार बालक के जन्म के पूर्व ही माता स्तनों में स्तन्य (क्षीर) का आविर्भाव हो जाता है, किन्तु जैनामतानुसार यह सृष्टि अनादि और अनन्त है।
भोगभूमि के पश्चात् कर्मभूमि का प्रारम्भ हुआ। उस समय शनैः शनैः कालक्रम से ऐसे मनुष्य भी उत्पन्न होने लगे जो विष शस्त्रादि द्वारा घात होने योग्य शरीर को धारण करने वाले होने लगे। उन्हें वात-पित्त-कफ के उद्रेक से महाभय उत्पन्न होने लगा । ऐसी स्थिति में भरत चक्रवर्ती आदि भव्य जन भगवान् ऋषभददेव के समवसरण में पहुंचे। वहां पहुंचकर उन्होंने प्रभु से निम्न प्रकार निवेदन किया देव ! त्वमेव शरणं शरणागतानामस्माकमाकुलधियामिह कर्मभूमौ । शीतातितापहिमधृष्टिनिपौडितानां कालक्रमात्कदशनाशनतत्पराणाम्॥
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नानाविधामय भयादर्तिदुःखितानमाहारभेषजनिरुक्तिमजानतां नः । तत्स्वास्थ्यरक्षण विधनर्मिहातुरणां का वा क्रिया कथयतामथ लोकनाथ ॥ कल्याणकारक, अ. 1/6-7
अर्थात् हे देव! इस कर्मभूमि में अत्यधिक ठंड, गर्मी और वर्षा से पीड़ित तथा कालक्रम से मिथ्या आहार विहार के सेवन से तत्पर, व्याकुल बुद्धि वाले शरणागत हम लोगों के लिए आप ही शरण है। हे तीन लोक के स्वामिन्! अनेक प्रकार की व्याधियों के भय से अत्यन्त दुःखी तथा