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अनेकान्त 68/4, अक्टू-दिसम्बर, 2015
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शरीर प्रायः निरोगी होता है और उन्हें औषधोपचार की आवश्यकता प्रायः नहीं होती तथापि दैववशात् कभी अस्वस्थ होते हैं तो उपवासादि क्रियाओं से वे अनेक रोगों का शमन कर स्वयं लेते हैं।
ऐसा लगता है कि उत्तर भारत की अपेक्षा दक्षिण भारत विशेषतः कर्नाटका में प्राणावय पूर्व का प्रचलन अधिक था। वहाँ आठवीं शताब्दी के प्राणावाय पूर्व के ग्रन्थ अभी यत्र-तत्र मिलते हैं, जबकि उत्तर भारत में प्राणावाय पूर्व प्रतिपादक एक भी ग्रन्थ प्राप्त नहीं है। ईसा की तेरहवीं शताब्दी से जैन श्राविकों और यति मुनियों के द्वारा रचित आयुर्वेद ग्रन्थों की जानकारी प्राप्त होती है। उनमें कुछ मौखिक हैं, कुछ संकलन और कुछ टीका ग्रन्थ भी हैं। टीकायें संस्कृत अथवा तत्कालीन प्रचलित हिन्दी (देशी भाषा) में है। दि0 जैन साधुओं में भट्टारकों और श्वेताम्बर साधुओं में यतियों का आविर्भाव होने के पश्चात् लोकापयोगी साहित्य का सृजन हुआ। वे उपाश्रय (उपासरे) में निवास करते हुए लोक समाज में चिकित्सा तंत्र-मंत्र तथा ज्योतिष विद्या आदि के आधार पर प्रतिष्ठा प्राप्त की। इसे पीछे नाथों व शाक्तों आदि का बढता प्रभाव था। जो लौकिक विद्याओं में जैसे चिकित्सा, रसायन, जादू-टोना, झाड़ा फूंकी, ज्योतिष, तंत्र-मंत्र आदि के द्वारा समाज में अपना प्रभुत्व जमाने लगे थे। ऐसी स्थिति में समाज के सम्मुख अपनी प्रतिष्ठा और सम्मान को बनाये रखने के लिए- जैन यतियों को इन लौकिक विद्याओं का आशय लेना पड़ा।
भटारकों का प्रभाव दक्षिण भारत में विशेष रूप से था। उन्होंने आयुर्वेद की विशिष्ट चिकित्सा रसायन में दक्षता प्राप्त कर समाज में अपना प्रभुत्व बढ़ाया। पारद, गन्धक और खनिज द्रव्यों के योग से निर्मित रसौषधियों के द्वारा, रोगों का शमन करना तथा रोग व जरा से जर्जरित शरीर में शक्ति का संचार करना रसायन चिकित्सा का उद्देश्य था। ___ आयुर्वेद मानव-जीवन से पृथक कोई भिन्न वस्तु नहीं है। वर्तमान में उपलब्ध वैदिक आयुर्वेद साहित्य के अनुसार भारतीय संस्कृति के आद्यस्रोत वेद और उपनिषद के बीज ही आयर्वेद को प्राप्त हए हैं। अतः आयर्वेद केवल भौतिक तत्त्वों तक ही सीमित नहीं है, अपितु आध्यात्मिक तत्त्वों के विश्लेषण में भी मौलिक विशेषता रही। चाहे अभ्युदय प्राप्त करना हो या निःश्रेयस; दोनों की प्राप्ति के लिए शरीर की स्वस्थता नितान्त अपेक्षित है।