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अनेकान्त 68/4 अक्टू- दिसम्बर, 2015
कर्मभूमि में शीत, अतिताप और वर्षा से पीड़ित कालक्रम से मिथ्या आहार-विहार सेवन में तत्पर हम लोगों को स्वास्थ्य की रक्षा का विधान और उपाय क्या है ? बतलाने की कृपा करें। 2
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भगवान् की दिव्य ध्वनि का प्रस्फुटी भाव तथा तदन्तर्गत वस्तु चतुष्ट्य का निरूपण करते हुए श्री उग्रादित्यार्च ने लिखा- " वह दिव्य ध्वनि सर्वप्रथम समस्त आयुर्वेद को पुरुष (रोगी) के लक्षण, औषध, अन्न और काल, इस प्रकार चार भाग में विभक्त करती हुई इस वस्तुचतुष्ट्य के लक्षण भेद-प्रभेद सहित सम्पूर्ण विषयों का संक्षिप्त रूप से कथन करने लगी जिसने भगवान की सर्वज्ञता को सूचित किया ।
वर्तमान में धार्मिक ग्रन्थों के रूप में आचार शास्त्र, नीतिशास्त्र, गणितशास्त्र, ज्योतिष, आयुर्वेद ग्रन्थ आदि के रूप में तथा चारों अनुयोगों के अंतर्गत समाविष्ट समस्त ग्रन्थों के रूप में जो भी वाड्.मय उपलब्ध है वह भगवान महावीर की देशना (दिव्यध्वनि) से सम्बद्ध है। प्रधान गणधन गौतम इन्द्रभूति ने भगवान् की देशना को धारणकर उसे द्वादशांग और चतुर्दश पूर्व के रूप में प्रतिपादित किया था। वही श्रुत कहलाया और द्वादशांग श्रुत के पारगामी श्रुतकेवली कहलाते है । गणधरों से श्रुतकेवलियों ने, उने वीतरागी मुनियों व अन्य आचार्यों ने आयुर्वेद का ज्ञान उपदेश रूप में ग्रहण किया और लोकहित की भावना से उसे लिपिबद्ध कर ग्रन्थ रूप प्रदान किया। उग्रादित्याचार्य ने अपने ग्रन्थ- कल्याणकारक में अनेक आचार्यों द्वारा प्रणीत ग्रन्थों का उल्लेख किया है। कल्याणकारक में स्पष्टरूप से यह तथ्य उद्घाटित किया कि आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने आयुर्वेद विषय को अधिकृत कर किसी ग्रन्थ की रचना की थी, जिसमें विस्तारपूर्वक अष्टांग संग्रह नामक ग्रन्थ का अनुसरण करते हुए मैंने संक्षेप में इस ग्रन्थ में रचना की है।' इससे यह प्रमाणित है कि समन्तभद्र स्वामी द्वारा विरचित अष्टांग वैद्यक विषयक कोई महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ अवश्य ही विद्यमान एवं उपलब्ध रहा होगा।
आचार्य शुभचन्द्र ने अपने ग्रन्थ 'ज्ञानार्णव' में देवनन्दी (पूज्यपाद) को निम्न प्रकार से नमस्कार किया है
अपाकुर्वन्ति यद्वाचः कायवाक् चित्त सम्भवम् । कलंकमग्निनां सोऽयं देवनन्दी नमस्यते ॥