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अनेकान्त 68/4, अक्टू-दिसम्बर, 2015
(3) उत्तराध्ययन- चिकित्सा सम्बन्धी उल्लेख (4) बृहद्वृत्ति पत्र- रसायन सेवन से चिकित्सा का उल्लेख (5) विपाक सूत्र- वैद्यकर्म, चिकित्साकर्म एवं धन्वन्तरि वैद्य का उल्लेख तथा विविध रोगों का उल्लेख। (6) वृ0 कल्पभाष्य पीठिका- अक्षिरोग चिकित्सा का उल्लेख। (7) दशवैकालिक- मल-मूत्र के वेग को नहीं रोकने का निर्देश। (8) जिनदास चूर्णि- वमन के वेग को नहीं रोकने का निर्देश। (9) आचारांग- 16 प्रकार के रोगों का उल्लेख। तथा (10) औघनियुक्त में- पामा चिकित्सा का उल्लेख है।
आगमिक उल्लेख के अनुसार वात, पित्त, कफ और सन्निपात से विभिन्न रोगों की उत्पत्ति के 9 कारण बतलाए हैं :1. अधिक भोजन, 2. अहित भोजन, 3. अतिशमन, 4. अति जागरण, 5. कब्ज (पुरीष निरोध), 6. मूत्रावरोध, 7. अध्वगमन (अधिक चलना), 8. भोजन की अनियमितता और 9. अधिक काम-विकार।।
पुरीष वेग को रोकने से मरण, मूत्र वेग को रोकने से दृष्टि हानि और वमन-निरोध से कुष्ठ रोग की उत्पत्ति होती है। आचारांग सूत्र में 16 रोगों का उल्लेख पाया जाताहै- सुखबोधा में भी 16 रोगों का कथन किया गया- श्वास, कास, ज्वर, दाह, हृदयशूल, भगन्दर, अर्श, अजीर्ण, दृष्टिशूल, मुखशूल, अरुचि, अक्षिवेदना, कर्णशूल, खाज, जलोदर और कुष्ठ। रोग के कारण
आ. वाग्भट ने काल (समय) अर्थ (इन्द्रियों के विषय) और कर्म का हीन योग, मिथ्या योग और अतियोग होना रोग का कारण कहा है। मिथ्या आहार-विहार और तज्जनित दोष प्रकोप (वात पित्त कफ का क्षय) से भी रोग की उत्पत्ति होती है। इसके साथ पूर्व जन्म में किए गये पाप (अशुभ) कर्म का उदय जब होता है तो कष्ट रूप रोगोत्पत्ति होता है और जब तक उस अशुभकर्म का परिपाल (क्षय) नहीं हो जाता, कष्ट का निवारण तब तक सम्भव नहीं है। रोग के नाश में आभ्यंतर कारण जहाँ धर्म है, वही बाह्य कारण औषधोपचार है, जो चिकित्सा कही जाती है।
एक उदाहरण कल्याणकारक में दिया जाता है