________________
अनेकान्त 68/2, अप्रैल-जून, 2015 ने उसे अपने पास ही रहने दिया, किन्तु उन्हें (आचार्य भद्रबाहु को) बड़ी चिंता हुई कि कटवप्र के इस वन्य-प्रान्त में सुकुमार प्रकृति वाले चन्द्रगुप्त अथवा प्रभाचन्द्र के आहार की व्यवस्था कैसे संभव होगी? फिर भी उन्होंने प्रभाचन्द्र (चन्द्रगुप्त) को कान्तार-चर्या करने का आदेश दिया। किन्तु तपोभूमि के चमत्कार से उसकी व्यवस्था किस प्रकार संभव हुई, उसकी तपस्या की दैवी-शक्तियों ने कितनी-कितनी और किस-किस प्रकार परीक्षा ली, उसका अपभ्रंश के महाकवि रइधू (वि.सं. 1440-1536) ने बड़ा ही मार्मिक चित्रण किया है।
मेरी दृष्टि से आचार्य भद्रबाहु के कान्तार-चर्या संबन्धी उक्त आदेश में दो दृष्टिकोण थे। प्रथम तो यह कि उससे चन्द्रगुप्त के आचरण की परीक्षा हो जाती कि भूख-प्यास के दिनों में भी अपनी इन्द्रियों एवं मन पर वह पूर्ण विजय प्राप्त कर सका है या नहीं? अथवा, उसके शिथिलाचारी होने की कोई सम्भावना तो नहीं है? दूसरा यह कि यदि उसने यथार्थ तपस्या की है, तो उसके प्रभाव से उसे घने निर्जन जंगल में भी क्या निर्दोष आहार मिल सकता है? महाकवि रइधू के वर्णनानुसार देखिए
Knowing about his short life through Akasvani (devine Voice of Sky at Katavapra, (South India) Bhadrabahu sends the Sadhu-Sangha ahead to Chola Country under the leadership of Acarya Visakhanandin and stays himself with Chandragupta there, Bhadrabhau direts Chandragupta to accept KantaraCarya (taking ceremonial food in the forest).
तहिं सज्झाउ करिवि रिसि संठिउ तुम्हहँ णिसही इत्थु जि होसइ तं णिसुणिवि मुणिणा जि णिमित्तं सिरिविसाहणंदी मुणिपुंगमु बारह-वरिसइँ गुरुपय-सेवमि जो सिस्सु जि गुरुपय णाराहइ इय भणंतु थक्कउ परम्त्थें भद्दवाहु अणसणु मंडेप्पिणु
ता मज्झिम-णिसि सदु समुट्ठि। गयणसदु एरिसु तहु घोसइ। णिय थोबाउ सुमुणिउ पवित्तं। संघ-भारु करिवि सुय-संगमु। इह अडवि णियकालु जि खेवमि। सो किं तवयरणें सिउ-साहइ। णउ गउ ताइँ मुणिहँ सत्थे। संठिउ जीवियास-छंडेप्पिणु।