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अनेकान्त 68/2, अप्रैल-जून, 2015
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बहिरंग तप करता जरूर है। लेकिन दृष्टि अंतरंग आत्म दुग्ध को शुद्ध करने की होती है। यदि अंतरंग पर दृष्टि नहीं है तो बहिरंग तप कार्यकारी नहीं होता । अन्तरंग तप के बिना बहिरंग तप का महत्व हीन बताते हुए बतलाते हैं कि यह सुनिश्चित है कि बहिरंग तपस्या से मुनिराज तो बनते हैं, परन्तु गुणस्थान तभी बनता है, जब बहिरंग में निर्ग्रन्थ भेष तथा अंतरंग में तप होता है। वही तपस्वी भी है। तपस्वी के बाह्य तप साधना संक्लेशों का निवारण कराती है और अभ्यन्तर तप मनःशुद्धि पूर्वक आत्मशुद्धि में कारण होते हैं। आत्मशुद्धि के साथ अनन्त कर्मों की निर्जरा तप के द्वारा ही होती है। इसीलिए तप को आत्मोत्थान का प्रशस्त पथ कहना सयुक्तिक ही है। संदर्भ :
१. कर्मक्षयार्थ तप्यत इति तपः । तत्त्वार्थवार्तिक ९/६/१७ पृ. ५९८
२. तिष्णरयणणभाविभावमिच्छणिरोहो। धवल ३/५/४
३. विसयकसायविणिग्गहभावं काऊणझाणमञ्झाए ।
जो भाव अप्पमाणं तस्स तवं होदिणियमेण वारस अणुवेक्स १७७
४. भगवती आरधना १०
५. प्रवचनसार गाथा ७९ की तात्पर्यवृत्ति
७. सद्दाबीजंतमोवुट्ठि (कासी भारद्वाज सुत्त)
६. महामंगलसुत्त
८. सुत्तनिपात पवज्जासुत्त
९. तपो च ब्रह्मचरियं च तं सिनानयनोदकम्। संयुक्तनिकाय १/१/१८
१०. तपसा वै लोकं जयंति । शतपथब्राह्मण ३/४/४१०२७
११. इदं वा अग्रनैव किंचनासीत् तदसदेव सन् मनोऽकुरुत स्यामिति तदतप्य ।
तस्मातपेनाद धूमो जायत कृष्णयजुर्वेद तै २/२/९
१२. तपो में प्रतिष्ठा (तै. ब्राह्मण ३/७/७०)
१३. गोपथ ब्राह्मण १/१/९
१४. परिणाम तव वसेणं इमाई हुति लद्धओ ।। ४९२ ।
१५. पुरुषार्थदेशना पू. ४२७
१६. दुविहो य तवायारो बाहिर अब्भंतरो मुणेयव्वो ।मूलाचार ।। पु. सि.
१७. अनशनमवमौदर्य विविक्तशयासनं रसत्यागः ।
कायक्लेशो वृत्तेः संख्या च निषेव्यमिति तपो ब्राह्मण पु.सि.
१८. तत्त्वार्थसूत्र ९/१९
१९. चौथे, छठें, आठवें, दसवें और बारहवें दिन एषणा का ग्रहण करना तथा एक पक्ष, एम मास, एक ऋतु एक अध्ययन या एकवर्ष्म तक एषण का त्याग करना अनेषण नाम का तप है। धवन ३ / ५५
२०. तत्त्वार्थवार्तिक ९/१९
२१. तत्त्वार्थवार्तिक ९/१९/३
२२. आचारसार ६ / १५