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अनेकान्त 68/3, जुलाई-सितम्बर, 2015 अथवा अस्वीकार करने पर निर्भर है। मनु का कहना है कि नास्तिक वह है जो वेदों की निन्दा करता है। ऐसा कहा जाता है कि नास्तिक दर्शनों यथा बौद्ध, जैन और चार्वाक् में से बौद्ध धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों का उद्गमन भी उपनिषदों में है यद्यपि उन्हें सनातन धर्म नहीं माना जाता है क्योंकि वे वेदों की प्रामाणिकता को स्वीकार नहीं करते। 'कुमारिल भट्ट' जिनकी सम्मति इन विषयों में प्रामाणिक समझी जाती है स्वीकार करते हैं कि बौद्ध दर्शन ने उपनिषदों से प्रेरणा ली है और वे यह युक्ति देते हैं कि इनका उद्देश्य अत्यन्त विषय भोग पर रोकथाम लगाना था। वे यहाँ घोषणा करते है कि ये सभी प्रामाणिक दर्शन है।'
समस्त भारतीय दर्शनों को हम दो कालों में विभाजित कर सकते हैंसूत्रकाल और वृत्तिकाल। सूत्रकाल में न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा तथा वेदान्त दर्शनों की रचना हुई। सूत्र काल से तात्पर्य सूत्र रचना के समय से ही उसका प्रारंभ हुआ, ऐसा नहीं है किन्तु ये सूत्र अनेक शताब्दियों में किये गये चिन्तन और मनन के फलस्वरूप निष्पन्न हुए हैं। इन सूत्रों का रचना काल 400 विक्रम पूर्व से 200 विक्रम पूर्व तक स्वीकार किया जाता है। सूत्र का लक्षण बताते हुए आचार्य कहते हैं कि
अल्पाक्षरमसन्दिग्धं सारवद्विष्वतो मुखम्।
अस्तोभ मनवद्यं च सूत्रसत्रविदोविदुः॥ सूत्रों की भाषा और गणार्थ को समझने के लिए भाष्य, वार्तिक तथा टीका ग्रन्थों की रचना हुई। यह काल वृत्तिकाल कहलाता है। शवर, कुमारिल, वात्स्यायन, प्रशस्तपाद, शङ्कर, रामानुज, वाचस्पति, धर्मकीर्ति, अकलंक, विद्यानंद, माणिक्यनंदी, प्रभाचंद्र आदि आचार्य इसी युग में उत्पन्न हुए। वृत्तिकाल का समय विक्रम संवत् 300 से वि. सं. 1500 तक माना जाता है। वैदिक दर्शनों में सांख्य दर्शन सबसे प्राचीन माना जाता है। उसके बाद क्रमशः अन्य दर्शनों की उत्पत्ति और विकास हुआ। अवैदिक दर्शनों में चार्वाक में हुई बुराईयों को दूर करने के लिए ईसापूर्व छठी शताब्दी में महात्मा बुद्ध के जन्म के बाद बौद्ध दर्शन का अभिर्भाव हुआ। जैनदर्शन की मान्यतानुसार जैन दर्शन की परम्परा अनादि काल से प्रवाहित होती चली आ रही है। वर्तमान युग में आदि तीर्थंकर ऋषभनाथ से लेकर चौबीसवें तीर्थकर भगवान महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थकरों ने कालक्रम से जैन धर्म और जैनदर्शन के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। तथा उसी परम्परा में