________________
अनेकान्त 68/3, जुलाई-सितम्बर, 2015
न्यायविद्या : स्वरूप एवं परम्परा
- डॉ. योगेश कुमार जैन, लाडनूं
मानव जीवन में विद्या का सर्वाधिक महत्त्व है। विद्या के महत्त्व को बताते हुए 'ईशावास्योपनिषद्' में लिखा है कि “विद्ययाऽमृतमष्नुते" यहाँ विद्या से तात्पर्य ज्ञान है, ज्ञान से ही मृत्युविरोधी अमृत तत्त्व की प्राप्ति होती है। आत्मतत्त्व अक्षय अमृत और ब्रह्म रूप है। आत्मा की अपने स्वरूप में अनुभूति ही ब्रह्मानुभूति है और यही मोक्ष है। विद्या के 'परा' और 'अपरा' ये दो भेद करते हुए 'रूद्रहृदयोपनिषद्' में कहा गया है कि परा और अपरा नाम की दो विद्यायें हैं वे साधक के लिए ज्ञातव्य हैं। 'मुण्डकोपनिषद्' के अनुसार "वविद्ये वेदितव्ये इति ह यद्ब्रह्मा विदो वदन्ति परा चैवापरा"। मनुष्य के लिए जानने योग्य दो ही विद्याएँ हैं एक परा और दूसरी अपरा। इन दोनों में से जिसके द्वारा इस लोक और परलोक सम्बन्धी भोगों तथा उनकी प्राप्ति के साधनों का ज्ञान प्राप्त किया जाता है, जिसमें भोगों की स्थिति भोगों के उपभोग करने के प्रकार, भोग सामग्री की रचना और उनको उपलब्ध करके नाना साधन आदि का वर्णन है वह अपरा विद्या है यथा यजुर्वेद, ऋग्वेद, सामवेद और अथर्ववेद ये चारों वेद तथा छ: वेदांग शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, छन्द और ज्योतिष इनका नाम अपरा विद्या है
और जिसके द्वारा परब्रह्म अविनाशी परमात्मा का तत्त्वज्ञान होता है वह पराविद्या है।
मनुष्य में जो स्वाभाविक विचार शक्ति है उसी का नाम दर्शन है। "दृष्यतेऽनेनेति दर्शनम्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिसके द्वारा वस्तु का स्वरूप देखा जाता है वह दर्शन कहलाता है अर्थात् यह संसार नित्य है? या अनित्य है? इसकी सृष्टि करने वाला कोई है या नहीं? आत्मा का स्वरूप क्या है? इत्यादि प्रश्नों का समुचित उत्तर देना दर्शन शास्त्र का विषय रहा है। दर्शन शास्त्र वस्तु के स्वरूप का प्रतिपादन करने के कारण वस्तु परतन्त्र है। 'सत्' की व्याख्या करने में भारतीय दार्शनिकों ने विषय की ओर उतना ध्यान नहीं दिया जितना विषयी (आत्मा) की ओर ध्यान दिया है। आत्मा