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अनेकान्त 68/4 अक्टू - दिसम्बर, 2015
करने से भी जरूर होती है और ज्यादा हो सकती है। ऐसी हालत में जो लोग परमात्मा की शब्दों और अक्षरों में स्थापना करके उन अतदाकार मूर्तियों के द्वारा उसकी उपासना करते हैं उन्हें परमात्मा की तदाकार मूर्तियाँ बनाकर उपासना करने वालों पर आक्षेप करने की जरूरत नहीं है और न वैसा करने का कोई हक ही है; क्योंकि वे स्वयं ही मूर्तियों द्वारा बल्कि - अस्पष्ट मूर्तियों द्वारा परमात्मा की उपासना करते हैं और उससे शुभ फल का होना मानते हैं। वास्तव में यदि देखा जाय तो कोई भी चिंतन अथवा ध्यान बिना मूर्ति का सहारा लिये नहीं बन सकता और निराकार का ध्यान ही हुआ करता है। प्रत्येक ध्यान अथवा चिंतन के लिये किसी न किसी मूर्ति का आकार - विशेष को अपने सामने रखना होता है, चाहे वह नेत्रों के सामने हो अथवा मानसप्रत्यक्ष इसी अभिप्राय को हृदय में रखकर पं. मंगतरायजी ने ठीक कहा है
अबस यह जैनियों पर इत्तहामें बुतपरस्ती है। बिना तसवीर के हरगित तसव्वर हो नहीं सकता।
अर्थात्– जैनियों पर बुतपरस्ती का - मूर्तिपूजा विषयक - जो इलजाम लगाया जाता है- यह कहा जाता है कि वे धातु पाषाण के पूजने वाले हैंवह बिल्कुल व्यर्थ और निःसार है; क्योंकि कोई भी तसव्वर-कोई भी ध्यान अथवा चिंतन- बिना तसवीर के बिना मूर्ति या चित्र का सहारा लिये नहीं बन सकता । भावार्थ, ध्यान तथा चिंतन की सभी को निरन्तर जरूरत हुआ करती है, इसलिए सभी को मूर्ति का आश्रय लेना पड़ता है और इस दृष्टि से सभी मूर्तिपूजक हैं।
एक मनुष्य किसी स्थान पर अपनी छतरी भूल आया। वह जिस समय मार्ग में चला जा रहा था, उसे सामने से एक दूसरा आदमी आता हुआ नजर पड़ा, जिसके हाथ में छतरी थी। छतरी को देखकर उस मनुष्य को झट से अपनी छतरी याद आ गई। उस मनुष्य को अपनी अपनी छतरी के भूलने की जो कुछ खबर पड़ी है और वहाँ से लाने में उसकी जो कुछ प्रवृत्ति हुई है उन सबका निमित्त कारण वह छतरी है, उस छतरी से ही उसे यह सब उपेदश मिला है ओर ऐसे उपदेश को 'नैमित्तिक उपेदश' कहते हैं। यही उपदेश हमें परमात्मा की मूर्तियों पर से मिलता है। जैनियों की ऐसी मूर्तियाँ ध्यानमुद्रा को लिये हुए, परमवीतराग और शान्त-स्वरूप