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अनेकान्त 68/4, अक्टू-दिसम्बर, 2015 अर्थात्-परमात्मा की उस मूर्ति में खुदाई का जलवा-परमात्मा का प्रकाश और ईश्वर का भाव-मौजूद है जिसकी वजह से उसे सिजदाप्रणामादिक-किया जाता है; अन्यथा, पत्थर के सामने सिजदा करने से कोई लाभ नहीं था। भावार्थ, परमात्मा की मूर्ति को जो प्रणामादिक किया जाता है वह वास्तव में परमात्मा को-परमात्मा के गुणों को ही प्रणामादिक करना है, धातु-पाषाण को प्रणामादिक करना नहीं है। और इसलिए उसमें लाभ जरूर है। जैन-दृष्टि से खुदाई का वह जलवा परमात्मा के परम वीतरागता और शान्ततादि गुणों का भाव है जो जैनियों की मूर्तियों में साफ तौर से झलकता और सर्वत्र पाया जाता है। परमात्मा के उन गुणों को लक्ष्य करके ही जैनियों के यहाँ मूर्ति की उपासना की जाती है।
परमात्मा की इस परम शान्त और वीतराग मूर्ति के पूजने में एक बड़ी भारी खूबी और महत्व की बात यह है कि, जो संसारी जीव संसार के मायाजाल और गृहस्थी के प्रपंच में अधिक फंसे हुए हैं, जिनके चित्त अति चंचल हैं और जिनका आत्मा इतना बलाढ्य नहीं है कि जो केवल शास्त्रों में परमात्मा का वर्णन सुनकर एकदम बिना किसी नक्शे के परमात्मस्वरूप का नक्शा (चित्र) अपने हृदय पर खींच सकें या परमात्म-स्वरूप का ध्यान कर सके, वे भी उस मूर्ति के द्वारा परमात्मस्वरूप का कुछ ध्यान और चिन्तवन करने में समर्थ हो जाते हैं और उसी से आगामी द:खों तथा पापों की निवृत्तिपूर्वक अपने आत्मस्वरूप की प्राप्ति में अग्रसर होते हैं।
यदि मूर्तिपूजा के सिद्धान्त पर नजर डाली जाये, मूर्ति के स्वरूप पर सूक्ष्मता के साथ विचार किया जाये, तो मालूम होगा कि संसार की कोई भी उपासना बिना मूर्ति के नहीं बन सकती। मूर्ति का अवलम्बन जरूर लेना पड़ता है। आप किसी की प्रशंसा नहीं कर सकते जब तक कि मूर्तियों का सहारा न लेवें।
परमात्मा का नाम लेने से, शब्दों-द्वारा परमात्मा की स्तुति करने से-परमात्मा ने नमः, ईश्वराय नमः, परब्रह्मणे नमो नमः, ॐ नमः, णमो अरहताणं, अल्हम्दोलिला इत्यादि मन्त्रों के उच्चारण करने से- या ॐ आदि अक्षरों की आकृति सामने रखकर ध्यान करने से यदि किसी पुण्य फल की प्राप्ति होती है तो वह तदाकार मूर्ति पर से परमात्मा का चिंतन