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अनेकान्त 68/4, अक्टू-दिसम्बर, 2015 होती हैं। उन्हें देखने से बड़ी शान्ति मिलती है, आत्मस्वरूप की स्मृति होती है- यह ख्याल उत्पन्न होता है कि हे आत्मन् ! तेरा स्वरूप तो यह
ने भुलाकर संसार के मायाजाल में और कषायों के फन्दे में क्यों फंसा हुआ है ? नजीता जिसका यह होता है कि (यदि बीच में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती तो) वह व्यक्ति यमनियमादि के द्वारा अपने आत्मसुधार के मार्ग पर लग जाता है। परम हितोपदेशक मूर्तियाँ, नि:संदेह, अभिवन्दनीय ही होती है। इसी से एक आचार्य महोदय उनका निम्न प्रकार से अभिवादन करते हैं;
कथयन्ति कषायमुक्तिलक्ष्मीं परया शांततया भवान्तकानाम्। प्रणमामि विशुद्धये जिनानां प्रतिरूपाण्यभिरूपमूर्तिमंति॥
___-क्रियाकलाप अर्थात्- संसार से मुक्त श्रीजिनेन्द्रदेव की उन तदाकार सुन्दर प्रतिमाओं को मैं, अपनी आत्मशुद्धि के लिये, प्रणाम करता हूँ जो कि अपनी परम शान्तता के द्वारा संसारी जीवों को कषायों की मुक्ति का उपदेश देती हैं।
इससे स्पष्ट है कि जिनेन्द्र-प्रतिमाओं की यह पूजा आत्मविशुद्धि के लिये की जाती है और जो काम आत्मा की शुद्धि के लिये- आत्मा की विभाव-परिणति को दूर कर उसे स्वभाव में स्थित करने के उद्देश्य से किया जाता हो वह कितना अधिक उपयोगी है इस बात को बतलाने की जरूरत नहीं, विज्ञ पाठक उसे स्वयं समझ सकते हैं और ऊपर के इस संपूर्ण कथन से मूर्तिपूजा की उपयोगिता को बहुत कुछ अनुभव कर सकते
मूर्ति पूजन का उद्देश्य - स्वामी समन्तभद्र ने निम्नांकित छंद द्वारा परमात्मा की उपासना का मूल उद्देश्य बताया कि दु:खों से छुटकारा तभी हो सकता है जब कि परमात्मा के गुणों में अनुराग बढ़ाया जाये।
न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे, न निन्दया नाथ विवान्तवैरे। तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः, पुनाति चित्तं दुरिताऽञ्जनेभ्यः॥
- स्वयंभूस्तोत्र हे भगवान्! पूजा-भक्ति से आपका कोई प्रयोजन नहीं है, क्योंकि आप वीतरागी हैं। राग का अंश भी आपके आत्मा में विद्यमान नहीं है,