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अनेकान्त 68/3, जुलाई-सितम्बर, 2015 के ये शब्द उसमें प्रवेश चाहने वाले अध्येताओं को ठीक उसी प्रकार भयावने लगते है जैसे किसी दुर्गम वन में प्रवेश चाहने वाले मनुष्यों को सिंह व्याघ्र आदि हिंसक जन्तु।
प्राचीन न्याय और नव्यन्याय की शैली में भी महान् भेद है। प्राचीन न्याय की भाषा सरल और निराडम्बर होने पर भी प्रायोगिक शैली के कारण इतनी संक्षिप्त और सांकेतिक होती है कि उसका प्रतिपाद्य विषय बहुत शीघ्रता से स्पष्ट नहीं हो पाता, बहुत से अनुमान ऐसे प्रयुक्त होते हैं कि शैली की दुःशीलता के कारण ही जिसका अनुमानत्व स्पष्ट नहीं हो पाता तथा पक्ष, साध्य और हेतु की विशद प्रतिपत्ति नहीं हो पाती। किन्तु नव्यन्याय की भाषा आडम्बर पूर्ण तथा स्वरूपतः दुर्गम होते हुऐ भी शैली की शालीनता के कारण अर्थतः अत्यन्त स्पष्ट होती है। विषय तथा प्रतिपादन दोनों के गुणदोष चन्द्रमा की धवलिमा के समान स्पष्ट दिखते हैं।
प्राचीन न्याय और नव्यन्याय में एक अन्तर और भी है वह यह कि प्राचीन न्याय में विषय का प्रतिपादन स्थूल होता है उसके विचार तलस्पर्शी नहीं होते हैं तथा वे विषय के बाह्यकलेवर का स्पर्शकर रूक जाते है। किन्तु नव्यन्याय में विषय का प्रतिपादन सूक्ष्मता से होता है। उसके विचार विषय के सर्वांग का स्पर्श करते हैं। तथ्य यह है कि न्याय शास्त्र के प्राचीन न्याय
और नव्यन्याय के नाम से जो प्रस्थान प्रतिष्ठित हैं उनका आधार है प्रतिपाद्य विषय का गौण-प्रधान भाव तथा भाषा और शैली की भिन्नता, किन्तु दोनों प्रस्थानों का मूल स्रोत एक ही है और वह है गौतम का न्यायदर्शन 'न्यायसूत्र'।
___10-11 वीं शताब्दी में जब बौद्ध धर्म का पतन हुआ तो भारतीय इतिहास में एक अभिनव युग का आरम्भ हुआ। इसी समय नव्यन्याय का स्रजन हुआ। नव्यन्याय में सूत्र ग्रन्थों की उपेक्षा और स्वतन्त्र ग्रन्थों का निर्माण आरम्भ हुआ। प्राचीन न्याय की भाषा अति सरल थी किन्तु नव्यन्याय की भाषा जटिल होती चली गई सम्भवतः इसीलिए कि इस युग में बौद्धों के साथ सैद्धान्तिक युद्ध चलता रहा जिससे वादी को हराने के लिए भाषा की जटिलता व्यूह रचना को साथ लेकर उहापोह पर आधारित हो गई थी। नव्य न्याय के प्रवर्तक गंगेशोपाध्याय को नव्यन्याय का पिता कहा जाता है।
न्याय का अर्थ है- विभिन्न प्रमाणों के द्वारा अर्थ का परीक्षण