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अनेकान्त 68/3, जुलाई-सितम्बर, 2015 __ आन्वीक्षिकी सभी धर्मो का आश्रय है, जैसे धर्म से यदि पदार्थ धर्म लिए जायें तो निश्चय ही वे अनुमान पर ही आधारित हैं यथा द्रव्य धर्म द्रव्यत्व की सिद्धि द्रव्यनिष्ठ कार्य सामान्य की कारणता में किंचिद् धर्मावच्छिन्नत्व के अनुमान से तथा पृथिवी धर्म पृथिवीत्व की सिद्धी पृथिवीनिष्ट गन्ध-सामवायिकारणता में किंचिद् धर्मावच्छिन्नत्व के अनुमान से होती है। धर्म से यदि पुण्य अर्थ लिया जाये तो उसकी सिद्धी भी अनुमान से ही होती है यथा “स्वर्गकामोयजेत" इस विधि वाक्य से यज्ञ को स्वर्ग का कारण बताया गया है पर यज्ञ का अनुष्ठान पूरा होने पर यज्ञ कर्ता को तत्काल स्वर्ग की प्राप्ति नहीं होती अपितु वर्तमान देह का अवसान होने पर प्राप्ति होती है, अतः अनुमान द्वारा यज्ञ के धर्मरूप व्यापार की सिद्धी कर उसके द्वारा यज्ञ में वेदोक्त स्वर्ग कारणता की उपपत्ति की जाती है। इस प्रकार आन्वीक्षिकी-अनुमान ही पदार्थ धर्मों का तथा शास्त्र विहित कर्मजन्य धर्मों का साधक होने से उनका आश्रय है। यह आन्वीक्षिकी प्रमाण और तर्क द्वारा अन्य सभी विद्याओं को प्रतिष्ठित करती है, प्रकाश में लाती है और उन्हें लोक यात्रा के लिए उपयोगी बनाती है।
महर्षि गौतम न्याय शास्त्र के आद्य प्रणेता माने जाते हैं। शास्त्रकार का मुख्यनाम 'मेधातिथि' माना जाता है किन्तु प्रसिद्धि गोत्रनाम 'गौतम' से ही पायी जाती है। कुछ विद्वान इनका नाम 'अक्षपाद' भी स्वीकार करते हैं। कछ विद्वानों का कहना है कि मेधातिथि गौतम मूलरूप में सत्रों के कर्ता
और अक्षपाद परिस्कर्ता है। न्याय एवं वैशेषिक दोनों दर्शनों को मिलाकर न्याय शास्त्र अथवा तर्क शास्त्र नाम से इस दर्शन युग्म की प्रसिद्धि हो गई थी। यद्यपि महर्षि गौतम न्याय के आद्यप्रणेता माने जाते हैं और कषाद वैशेषिक दर्शन के, किन्तु विमर्श से ज्ञात होता है कि ये दृष्टा ही थे प्रणेता नहीं। भारतीय सिद्धान्तानुसार सब शास्त्रों का उद्गम स्थान वेद ही है। उसके किसी तत्त्व का उपबृंहण शास्त्र का स्वरूप धारण करता है इसीलिए इन्हें दर्शन भी कहा जाता है। मूलभूत सिद्धान्त का परिष्कृत दर्शन ही शास्त्र कहा जाता है। ये ही छः शास्त्र हैं। उनमें से न्याय शास्त्र एक है अत: उसका मूल सात वेद ही है। ऋग्वेद में 'सविज्ञानं चिकितषे जनाय सच्चासच्च (अ.5/7) कहा है जो गौरव लाघव ज्ञान में लाघव ज्ञान को हितकारक बताता है यह न्याय शास्त्र का ही विषय है। कहा भी है कि -
श्रोतव्यः श्रुतिवाक्येभ्यो मन्तव्यश्चोपत्तिभिः। न्यायो मीमांसा धर्मशास्त्राणि श्रुति:१२