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अनेकान्त 68/4 अक्टू-दिसम्बर, 2015
‘मेरी भावना' (१९१६ ) के सौ वर्ष पूर्ण होने पर विशेष.....
मेरी भावना का राजस्थानी पद्यानुवाद म्हारी भावना
जणा राग द्वेस ने जीत्यो, जीत्यो ने जाण्यो संसार । सगला जीवाँ रे हित खातिर कीधो ग्यान ध्यान परचार । तीर्थंकर वै या पैगम्बर, या केवो उण ने अवतार । उण री हाँची भगति वातै, राखूँ सब जीवाँ सुँ प्यार ।।1।।
विसय भोग री आस नहीं, समता रो धण राखै हैं । अपणी दूजा री आत्मा री, दिवस रात चिन्ता राखै हैं । स्वारथ-त्याग री दोरी तपस्या, खुशी-खुशी जी कर लेवै ।
वी हाँचा साधु दुनिया रा दुख-दरदाँ ने हर लेवै ।।2।। असा साधु सजनाँ री संगत, रोज म्हने मलती रेहवै। हउ-हउ वाताँ सुँ जीवन री, फुलवारी खिलती रेहवै। कणी जीव ने दुख नी देऊँ, झूठ कदी नी बोलूँ हूँ। नार पराई ने आदर दूँ, माँ - बैना म्हारी मानूँ || 3 ||
अहम्कार मन नी राखेँ, गुस्सा ने म्हूँ दूर करूँ । दूजा री खुशियाँ ने देखी, इरस्या से नी भाव धरूँ। असी भावना रेहवे म्हारी, सत्य सरल वैवार करूँ। असी भावना रेहवे म्हारी, सत्य सरल वैवार करूँ।
वणै जटा तक अण जीवन में दूजा रो उपकार करूँ।।4।। अणी जगत में सबसुँ म्हारो प्रेम भाव वणियो रे । दीन दुखी जीवाँ रे वाते करुणा री धारा वेवै । जी दुर्जण है मतिहीण है, वी भी छोड़े पाप तमाम । हे भगवान वणा ने दीजो हउ - हाँची बुद्धि रो दान ।। 5 ।।
गुणीजणाँ ने देख हिया में म्हारे प्रेम उजड़ आवै। वणे जटा तक वणारी सेवा करने यो मन सुख पावै ।
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