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अनेकान्त 68/3, जुलाई-सितम्बर, 2015 दोनों के सापेक्ष होने पर एक-दूसरे का अस्तित्व सम्भावित हो जाता है और इस प्रकार ये अनेकान्तवाद को विशिष्ट बनाते हैं। ज्ञान-चारित्र में सह अस्तित्व :
आचार्य ग्रंथ के अन्त में ग्रंथ के सार के रूप में अन्तिम गाथाओं में ज्ञान व चारित्र का महात्म बताते हुए कहते हैं
णाणं किरियारहियं किरियामेंत्तं च दो वि एगंता।
असमत्था दाएउं जम्ममरणदुक्ख मा भाई॥२६
अर्थात् क्रिया से रहित या चारित्र से रहित ज्ञान और ज्ञान से रहित चारित्र (क्रिया) दोनों ही एकान्त है और दोनों एकान्त होने से जन्म-मरण के दुखों से छुड़ाने में असमर्थ है। दोनों का सह-अस्तित्व ही कार्यकारी है। ज्ञान सहित क्रिया और क्रिया सहित ज्ञान ही मोक्ष मार्ग में सहायक है। बिना ज्ञान के बाहरी धार्मिक क्रियाओं के पालन मात्र से आत्मा का कोई हित नहीं होता। इसी प्रकार ज्ञान होने पर धार्मिक क्रियाओं का पालन एवं वैराग्य न हो तो भी जीव जन्म-मरण के दुःखों से मुक्त नहीं हो सकता। जिस प्रकार किसी घने जंगल में भटके हुए अन्धे और लंगड़े अलग-अलग प्रयत्न करते हुए दावाग्नि से अपनी रक्षा करने में समर्थ नहीं होते, परन्तु जब लंगड़ा अन्धे के कन्धों पर बैठता है तो जंगल से पार हो जाता है और अन्धा भी पार हो जाता है उसी प्रकार चारित्र भी ज्ञान का आलम्बन लेकर जन्म-मरण के दु:खों से छुटकारा दिलाने में समर्थ होता है। अतः ज्ञान व चारित्र के सह-अस्तित्व से ही हम मोक्षमार्ग में स्थापित हो सकेंगे ऐसा यहाँ आचार्य का कहना है।
उक्त सभी विवेचन से स्पष्ट है कि जैन दर्शन में व्याप्त सह-अस्तित्व अथवा अनेकान्तवाद जैन दर्शन का प्राण है और सभी दृष्टिकोणों के सापेक्ष सह-अस्तित्व से ही सत् वस्तु का प्ररूपण संभव है।