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अनेकान्त 68/3, जुलाई-सितम्बर, 2015 जीव सुखी होते हैं तथा शुक्लवर्ण वाले परम सुखी होते हैं। जीवों के छः वों का वर्णन परम प्रमाणित माना जाता है।
सत्त्व, रजस, तमस गुण के न्यूनाधिकता के आधार पर रंगों का वर्णन है। जीव के लेश्या-समय एवं स्थान का वर्णन है जो जैनदर्शन से तुलना करने का अच्छा विषय है।
गीता के 16वें अध्याय में प्राणियों की आसुरी एवं दैवीय प्रकृति बतलाई गई है उसमें दैवीय गुण मोक्ष के हेतु हैं और आसुरी गुण बन्धन के हेत हैं। बौद्ध ग्रन्थों में
दीघनिकायपालि में आजीवक सम्प्रदाय के आचार्य मक्खलिगोशालक के संसारविशुद्धिवाद में एवं अंगुत्तरनिकाय में पूरणकश्यप के अक्रियावाद में छः जीव-भेदों का वर्गीकरण है। इनके अनुसार कृष्ण, नील, लोहित, हरिद्र, शुक्ल और परमशुक्ल- ये छः अभिजातियां है। अंगुत्तरनिकाय के छलभिजातिसुत्त के अनुसार कृष्ण अभिजाति में आजीवक सम्प्रदाय से इतर सम्प्रदायों के गृहस्थ को, नील अभिजाति में निर्ग्रन्थ और आजीवक श्रमणों के अतिरिक्त अन्य श्रमणों को, लोहित अभिजाति में निर्ग्रन्थ श्रमणों को, हरिद्र अभिजाति में आजीवक गृहस्थों को, शुक्ल अभिजाति में आजीवक श्रमणों को और परमशुक्ल अभिजाति में गोशालक आदि आजीवक सम्प्रदाय के प्रणेता वर्ग को रखा गया। यह वर्गीकरण पूरणकश्यप द्वारा प्रतिपादित है।" पूरणकश्यप के दृष्टिकोण की समालोचना करते हुए तथागत बुद्ध आनन्द से कहते हैं कि प्रशस्त और अप्रशस्त मनोभाव तथा कम के आधार पर मानव जाति को कृष्ण और शुक्ल वर्ग में रखा जाय। जो क्रूरकर्मी हैं वे कृष्ण अभिजाति के हैं और जो शुभकर्मी हैं वे शुक्ल अभिजाति के हैं।” इन्हें भी गुणकर्म के आधार पर तीन-तीन भागों में बांटा गया। जैनागम में भी प्रथमतः दो भागों में बांट कर प्रत्येक के तीन-तीन विभाग किए गए। तथागत बुद्ध के अनुसार वर्ण की अपेक्षा कृष्ण-शुक्ल के आधार पर छः अभिजातियां इस प्रकार हैं1. कृष्ण अभिजाति कृष्ण धर्म करने वाली। 2. कृष्ण अभिजाति शुक्ल धर्म करने वाली। 3. कृष्णअभिजाति अकृष्ण-अशुक्ल निर्वाण धर्म करने वाली। 4. शुक्ल अभिजाति कृष्णधर्म करने वाली।