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अनेकान्त 68/3, जुलाई-सितम्बर, 2015 बनावटीपन की भीड़ में महावीर का चिंतन कहीं खो गया है।
जीवनमूल्य हमारे हाथ से छिटक गये है। विसर्जन : विसर्जन की साधना के लिये मूर्छा तोड़नी होगी, महावीर ने शरीर व आत्मा के भेद विज्ञान से ही बात प्रारम्भ की है। यदि बाहर भीतर एक सा जीना है तो आत्मा शरीर को पहचानों, ज्ञान बढाओं, अहिंसक बनो। महावीर ने अंहिसा से अपरिग्रह (विसर्जन) का अणुव्रत-मार्ग, प्रशस्त किया है। पंचम एवं अंतिम नियम परिग्रह परिमाण हमारी चल-अचल, चेतन अचेतन सम्पत्ति की सीमाओं को निर्धारित करने का निर्देश देता है। दूसरा नाम इच्छा परिमाण है। आंतरिक इच्छाओं को नियंत्रित व नियमित करने का निर्देश देता है। मुख्य उद्देश्य है कि हम बाह्यरूप से सम्पत्ति विवेकपूर्वक निर्धारित सीमाओं में रखें। आंतरिक रूप से इच्छाओं को नियंत्रित करे जिससे बायसीमाओं का पालन स्वयमेव होता रहे। आचार्य कार्तिकेय के अनुसार -
"जो परिवज्जई ग्रन्थं अब्भंतर बाहिरं च ज्ञाणदो पावंति भण्ण्माणो निग्गंथो सो हवे णाणी
जो संसार से बांधता है उसे ग्रन्थ या परिग्रह करते है। बहिरंग एवं आभ्यान्तर दो प्रकार का है। जो उन्हें आनन्दपूर्वक छोडकर निर्ममत्व भाव में लीन होता हुआ आत्म स्वरूप में स्थित तथा संतोष में तत्पर रहता है वह अपरिग्रही होता है। विसर्जन-अर्थ के प्रति मूर्छा न रखना, उसके संग्रह से बचे रहना, लगाव न रखना। अपरिग्रही न तो वस्तुओं के प्रति आसक्त होते हैं न संग्रह करते हैं। विसर्जन-शरीर में ममत्व के त्याग के साथ विसर्जन है। आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा -
धनधान्यादि ग्रन्थं, परिमाय ततोऽधिकेषु निःस्पृहता' परिमितपरिग्रहः स्यादिच्छापरिमाण-नामाऽपि।
क्षेत्र-वास्तु, हिरण्य सुवर्ण, धन धान्य, दास दासी, कुप्य भाण्ड इन दस बाह्य परिग्रहों को परिमित रखकर उनसे अधिक में इच्छा नहीं रखना, सीमा निर्धारण करना। उस सीमा को वस्तुओं के परिप्रेक्ष्य में और कम करता जाये मनसा वचसा कायसा निभाने का प्रावधान है। व्रत को कृत व कारित दोनों ही तरह से अपनाता है। जैन श्रावक के लिये अर्जन की सीमा