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अनेकान्त 68/3, जुलाई-सितम्बर, 2015
गृहति आत्मा नामिति परिग्रह "२ इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो आत्मा को सर्वतोमुखेन जकड़ लेवे वह परिग्रह है। अकलंक देव - बाह्याभ्यन्तरोषधि संरक्षणदि व्याप्रति मूर्च्छा
बाह्य एवं आंतरिक परिग्रह के रक्षण आदि के व्यापार को मूर्च्छा कहते हैं। बाह्य परिग्रह में स्त्री पुरुष परिजनादिचेतन, मणि, मुक्ता, वाटिका आदि अचेतन परिग्रह हैं। आगम में संग्रह नय से बाह्य परिग्रह से दस भेद है क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, सुवर्ण, धन-धान्य, दास - दासी, कुप्य-भाण्ड। आम्यंतर परिग्रह 14 है- मिथ्यात्व, वेदकषाय आदि। प्रश्नव्याकरण के अनुसार आत्मा के निज गुणों को छोड़कर क्रोध लोभ आदि भावों को ग्रहण करना अन्तरंग परिग्रह है। ममत्व भाव से, भौतिक वस्तुओं को संग्रह करना बाह्य परिग्रह है।
परिसमन्तात ग्रसति इति परिग्रह *
बाह्य - आभ्यन्तर जो पुद्गल के प्रति मूर्च्छा जीव को सब तरह से डसती/ ग्रसती है वह परिग्रह है। परिग्रह - परिग्रहण, परि से अर्थ ढेर, विपुल, सम्पूर्ण वस्तुओं का ग्रहण करना अर्जन है।' यह जड़चेतन, रूपी-अरूपी, स्थूल व अणु किसी भी प्रकार की वस्तु से हो सकता है।
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यह अर्जन महावृक्ष है जिसकी जड़ें तृष्णा, आकांक्षा इच्छा है। शाखायें- लोभ, ईर्ष्या, हिंसा, कपट है। यह अर्जन विभावों का मूल है। * अर्जन से मनुष्य अनेक आरम्भ जनक कार्य करता है। षट्कायिक
जीवों का घात होता है। धर्म अधर्म का विचार नहीं करता। अर्जन के लिये नरहिंसा, भूखे पशु-पक्षियों की हिंसा एवं वध, चर्बी, हडियाँ, प्रसाधनों को पाने के लिए करता है।
* परिग्रह वाला कोई रिश्ता नाता नहीं देखता । जैसा नीतिकार कहते है कि भूखे आदमी को कुछ नहीं सूझता । माता चुली लाक्षाग्रह में पुत्र ब्रह्मदत्त को जलाने का कुकृत्य करती है। कंस ने पिता को एवं बहन को कारागार में डाला।
द्रव्यग्रहण करने के लिये झूठ बोलता है। अनेक प्रकार के कपट मिलावट, कमतौल आदि चौर कर्म करता है ।
दूसरे द्वारा धन का हरण होने से परिग्रही क्रोध करता है, शोक करता है, लोभ करता है, मद करता है। धन के प्रति अनुराग रति है।
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