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अनेकान्त 68/3, जुलाई-सितम्बर, 2015
लोग भरम हम पे करे इस विधि नीचे नैन॥ दानपति के गुण - श्रद्धा शक्ति भक्ति, विज्ञान, क्षमा, त्याग ये दानपति के गुण है।१४ दान देने में दाता, देय, पात्र की शुद्धि होना आवश्यक है।१५ उपासकाध्ययन के अनुसार 4 प्रकार के दान है१६ - आहार, औषध, शास्त्र (ज्ञान) एवं अभयदान। अभयदान - यह सर्वश्रेष्ठ दान है, दूसरे जीवों की रक्षा करना, जैसा उत्तराध्ययन के संजयीय में ऋषि राजा संयति को अभयदान का संदेश देते है। सच कहा है कि अगर तू कमा सकता है तो सौ हाथों से कमा, सौ हाथों से अर्जन कर। लेकिन उसे हजार हाथों से बरसाने की हिम्मत भी रख। त्याग:
अर्थ - शरीर से आसक्ति का परित्याग कर पदार्थो के प्रति मन में वैराग्य रखना। यह जीव रक्षण व अपने हित के लिये किया जाता है। जो अपने पास है उसे अपना न समझ छोड़ दिया जाय यह त्याग है। त्याग में छोडने पर आग्रह है। त्याग वैयक्तिक है। अपनी वस्तु पर से अपना अधिकार छोड़ देना है। आचार्य अकलंक १७ सचेतन और अचेतन परिग्रह की निवृति को त्याग माना है। कुन्दकुन्द१८ ने कहा है अपने से भिन्न सभी पदार्थो को ये पर है इस प्रकार जानकर त्याग किया जाता है। इशावास्य उपनिषद में कहा है
“इस चर जगत मे जो कुछ है वह सब ईश्वर से व्याप्त है। लब्ध वस्तु में से त्याग करके ही भोग करे, किसी अन्य के धन का लोभ न करे। इसमें त्याग और अलोभ के लिये स्पष्ट निर्देश है जो अपरिग्रह व्रत का सार है।"
दानियों से भी अधिक सम्मान त्यागियों का है। त्याग करने में स्वर्ग प्राप्ति, गुणों का आश्रय, वर्ण, आयु, बल, बुद्धि बढ़ती है। बन्धुत्व की प्राप्ति होती है। सुख समृद्धि होती है। क्षुधा पीड़ित के लिये किया त्याग दीर्घायु, आरोग्य, यश आदि को बढ़ाता है। नवधा भक्तिपूर्वक त्याग, दुष्टचिताओं की समाप्ति करता है। औषधदान से निरोगता एवं अभय से प्राणियों का रक्षण होता है। ये त्याग की विधियाँ है।
उत्तराध्ययन में इषुकारिय में पूर्वजन्मों में शुभ संस्कार लेकर 6 आत्माओं के संयोग का निरूपण है। महाराज इजुकार, कमलावती, पुरोहित