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अनेकान्त 68/3, जुलाई-सितम्बर, 2015
73 आचार्य उमास्वामी कहते हैं- "जो द्रव्य के आश्रय से हो और स्वयं दूसरे गुणों से रहित हों वे गुण है।। गुणों को सहभू, अन्वयी और अर्थ रूप भी कहा गया है।'' द्रव्य में अनन्तगुण रहते हैं। प्रत्येक गुण का स्वरूप व कार्य (लक्षण) भिन्न-भिन्न हैं एक गुण, अन्य अनन्त गुणों के साथ रहते हुए भी अपने स्वरूप को कभी नहीं छोड़ता। परन्तु यहाँ विशेष यह है कि गुणों का स्वरूप नहीं बदलता, किन्तु उनकी अवस्थाएँ बदलती है। इसलिए उनमें परिवर्तन भी दिखाई देता है। इन गुणों के कार्य अर्थात् परिणमन को पर्याय कहते हैं। पर्याय का अर्थ अवस्था से है। आचार्य देवसेन के मतानुसार 'द्रव्य और गुणों के विकास अर्थात् परिणमन को पर्याय कहते हैं।14 और भी कहा है- 'गुणों में प्रतिसमय होने वाली अवस्था का नाम पर्याय है। अथवा द्रव्यों में जो अंश कल्पना की जाती है, यहीं तो पर्यायों का स्वरूप है।"15 द्रव्य-गुण-पर्याय के सामान्य विषय में द्रव्य गर्भित है व गुण-पर्याय उसके विशेष है। सम्मइसुत्तं में कहा गया है
सामण्णम्मि विसेसो विसेसपक्खे य वयणविणिवेसो। दव्वपरिणाममण्णं दाएइ तयं च णियमेइ॥१६
अर्थात् सामान्य में विशेष का और विशेष में सामान्य का जो कथन किया जाता है, वह द्रव्य, गुण और उसकी पर्यायों को भिन्न-भिन्न रूप में बतलाता हुआ तीनों को एक नियत करता है। वस्तुतः द्रव्य-गुण और पर्याय भिन्न नहीं है। जो द्रव्य है वह अनन्त गुणों से है और उन गुणों में प्रतिसमय होने वाले परिणमन ही पर्याय है। यह तीनों एक ही समय में द्रव्य की एक पर्याय या अवस्था में अवस्थित रहते हैं। द्रव्य सदैव किसी न किसी पर्याय के रूप में ही उपलब्ध रहता है। द्रव्य-गुण व पर्यायों में सह-अस्तित्व त्रिकाल विद्यमान रहता है। ये गुण द्रव्य व पर्याय से भिन्न प्राप्त नहीं हो सकते। पर्याय जो प्रतिसमय बदल रही है वह द्रव्य व उसमें स्थित गुणों की ही है। अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं होती है। इन द्रव्य-गुण-पर्याय का सह-अस्तित्व ही वस्तु का स्वरूप है अन्य नहीं। और भी कहा है
दव्वं जह परिणयं तहेव अस्थि ति तम्मि समयम्मि। विगयभविस्सेहि उ पज्जवेहिं भयणा विभ्यणा वा॥७