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अनेकान्त 68/3, जुलाई-सितम्बर, 2015
अर्जन के साथ विसर्जन के सूत्र उत्तराध्ययन के परिप्रेक्ष्य में
सुधाभण्डारी जैसे-2 मानव ने विकास किया, मानवों के सम्पर्क में आया, व्यवहार प्रारंभ हुआ, व्यक्तिगत चिन्तन ने सामाजिकता की ओर मोड़ लिया। उसे सुसंस्कृत एवं जीवन को व्यवस्थित बनाने के लिए नियमों की आवश्यकता हुई जो आचार रूप मूल्यों व अन्त में धर्म में बदली।
मूल्य आदर्श है सर्वमान्य मानक है धर्म से अनुप्राणित आचार विचार है, जो स्वविकास, सर्वोदय विकास एवं आत्मउत्कर्ष में सहयोगी है। ये इष्ट, प्रयोजन, श्रेय एवं पुरुषार्थ के विषय हैं जिसमें मनुष्य सर्वोच्च लक्ष्य की ओर अग्रसर होता है जैसे संयमशील, सत्य, अहिंसा, तप, सरलता धैर्य, त्याग आदि। इन्हें हम व्यक्तिगत मूल्य, व्यावहारिक, नैतिक, सामाजिक, राजनैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों में विभाजित कर सकते हैं, क्योंकि यह जीवन के सभी व्यवहारों के ताने-बाने से संगठित होते हैं।
विश्व में कोई ऐसा समाज एवं धर्म नहीं है जिसमें आचार व धर्म के नियमों का विधान न हो। भौतिक जीवन किसी न किसी रूप में दोषी पाया जाता है। यह दुःख, अज्ञान, अपावन संवृतियों से परिपूर्ण है। कार्मिक बंधनों से जकड़ा है। अतः महावीर के उपदेश-मूल्य स्वरूप आगमों में संकलित हैं उन्हीं में एक आगम सूत्र है उत्तराध्ययन। महावीर ने निर्वाण से पूर्व पावापुरी में उत्तराध्ययन की प्ररूपणा की जिसमें 36 अध्ययन हैं। जो धर्म कथात्मक, आचारात्मक, सैद्धान्तिक, उपदेशात्मक हैं। विभिन्न मूल्यों-विनय, समता, कषायों से रक्षा, अनासक्ति, पुरुषार्थ, शील, अहिंसा, करूणा आदि मूल्यों को कथाओं व उपदेश के माध्यम से अवगत कराते हैं उन्हीं में से एक मूल्य है अर्जन से विसर्जन।। अर्जन की परिभाषा :- तत्वार्थ सूत्र में अर्जन मूर्छा है ''मूर्छा परिग्रह"१ भौतिक वस्तुओं के प्रति तृष्णा व ममत्व भाव रखना मूर्छा है। चल, अचल सम्पत्ति के अधिपत्य ममत्व की भावना परिग्रह है। "परितः