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अनेकान्त 68/3, जुलाई-सितम्बर, 2015 - कृष्ण, नील, कापोत- इन तीन अशुभ लेश्याओं को उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य अंश रूप में यह आत्मक्रम से संक्लेश की हानि होने से परिणमन करता है।
उत्तरोत्तर संक्लेश परिणामों की वृद्धि होने से यह आत्मा कापोत से नील और नील से कृष्ण लेश्या रूप परिणमन करता है। इस तरह यह जीव संक्लेश की हानि और वृद्धि की अपेक्षा से तीन अशुभ लेश्या रूप परिणमन करता है।
उत्तरोत्तर विशुद्धि होने से यह आत्मा पीत, पद्म, शुक्ल- इन शुभ लेश्याओं के जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट अंश रूप परिणमन करता है। विशुद्धि हानि होने से उत्कृष्ट से जघन्य पर्यन्त शुक्ल, पद्म, पीत लेश्यारूप परिणमन करता है।
परिणामों की पलटन को संक्रमण कहते हैं उसके दो भेद हैं- स्वस्थान, परस्थान संक्रमण। कृष्ण और शुक्ल में वृद्धि की अपेक्षा स्वस्थान संक्रमण ही होता है और हानि की अपेक्षा दोनों संक्रमण होते हैं तथा शेष चार लेश्याओं में स्वस्थान परस्थान दोनों संक्रमण सम्भव है।
स्वस्थान की अपेक्षा लेश्याओं के उत्कृष्ट स्थान के समीपवर्ती परिणाम उत्कृष्ट स्थान के परिणाम से अनन्त भाग हानिरूप है तथा स्वस्थान की अपेक्षा से ही जघन्य स्थान के समीपवर्ती स्थान का परिणाम जघन्य स्थान से अनन्त भाग वृद्धिरूप है। सम्पूर्ण लश्याओं के जघन्य स्थान से यदि हानि हो तो नियम से अनन्त गुण हानि रूप परस्थान संक्रमण होता है। जैनेतर ग्रन्थों में लेश्या के समतुल्य-सन्दर्भ
महाभारत में- लेश्या से मिलती-जुलती भावना महाभारत के शान्तिपर्व में मिलती है। जहाँ जगत् के सब जीवों के वर्ण-रंग के अनुसार छः भेदों में विभक्त किया गया है
षड् जीववर्णाः परमं प्रमाणं कृष्णो धूम्रो नीलमथास्य मध्यम। रक्तं पुनः सह्यतरं सुखं तु हारिद्रवर्ण सुसुखं च शुक्लम्।
अर्थात् जीव छः वर्ण वाले होते हैं- कृष्ण, धूम्र, नील, रक्त, हारिद्र तथा शुक्ल। कृष्ण वर्ण वाले जीव को सबसे कम सुख, धूम्र कर्म वाले जीव को उससे अधिक सुख और नील वाले को मध्यम सुख होता है। रक्त वर्ण वाले जीव का सुख-दुःख सहने योग्य होता है। हारिद्र (पीले) वर्ण वाले