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अनेकान्त 68/3, जुलाई-सितम्बर, 2015 ___ गांधी युग में आधुनिकीकरण और विकास की अवधारणा, एफ्रो-एशियन देशों- जो यूरोपियन शासन से मुक्त हुए थे, की प्रभुत्व वाली विचारधारा के रूप में उद्भुत हुई। इन देशों के मुख्य उद्देश्य थे
1. तीव्र आर्थिक विकास एवं 2. पाश्चात्य प्रतिमान के अनुकरण में सामाजिक परिवर्तन।
इन लक्ष्यों की पूर्ति के प्रयासों ने भारत की सामाजिक, आर्थिक संरचना तथा आध्यात्मिक संपदा के विध्वंस का खतरा उत्पन्न कर दिया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि यह विकास सत्ता, लाभ और भौतिक सुख के आधारों पर अवलंबित था।
विकास के इस प्रतिमान के विरुद्ध गांधी ने शरीर श्रम, आत्म-संयम तथा सदगुणजनित सरल ग्रामीण जीवन की वकालत की। स्वदेशी की अवधारणा का उद्देश्य शरीर श्रम, प्राकृतिक संसाधनों के प्रयोग तथा स्वप्रबंधन की राजनैतिक संरचना के द्वारा आर्थिक आत्मनिर्भरता व पूर्ण रोजगार की स्थिति को प्राप्त करना था। गांधी ने जिस स्वराज की अवधारणा प्रस्तुत की, वह इच्छा परिमाण के सिद्धान्त पर आधारित है। कहा गया है- “स्वराज के लिए आत्मसंयम, अनुशासित-व्यवहार और व्यक्ति में समुदाय के सभी सदस्यों के प्रति दायित्वबोध की चेतना आवश्यक है। 14
आर्थिक विकास की यह अवधारणा अनेक संदर्भो में प्रासंगिक है जिसमें पृथ्वी की सुरक्षा एवं न्यायपरक जीवनक्षम विश्वव्यवस्था का उद्भव भी सम्मिलित है। समता तथा आत्मपीड़न के प्रति गांधी का तर्क : ____ पाश्चात्य दार्शनिकों ने बौद्धिकता को मनुष्य की एक प्रमुख विशेषता के रूप में स्वीकार किया है। सिगमंड फ्राइड जिन्होंने मनुष्य को भावों के संबन्ध में विश्लेषित किया; के बाद ही यह कहा गया कि मनुष्य जितना बौद्धिक प्राणी के साथ भावात्मक प्राणी भी है। समता सत् की सर्वोच्च अवस्था है जो सामान्य भाव स्थिति से उपरत है तथ जो राग और द्वेष से संबन्धित है। तकनीकी रूप से यह मोह विजय की अवस्था है, जिसमें इच्छाएं शून्य हो जाती हैं। व्यावहारिक रूप में यह एक अहिंसक उपक्रम है जो करुणा, क्षमा और दूसरों के उत्थान से सम्पन्न है।