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अनेकान्त 68/3, जुलाई-सितम्बर, 2015 4. तेजो-तप्त सुवर्ण के सदृश, रस-खट्टा-मीठा। 5. पद्म- कमल के सदृश, रस-मीठा। 6. शुक्ल- शंख के समान वर्ण वाली, कांस के पुष्प के समान, रस-अधिक मीठा।
तीन अशभ लेश्या का स्पर्श रूक्ष एवं गन्ध-दुर्गन्ध और तीन शुभलेश्याओं का स्पर्श मुलायम एवं गन्ध-सुगन्ध है। भावलेश्या के दलगत भेद1. अधर्म-धर्म-प्रथम तीन (कृष्ण-नील-कापोत) अधर्म पश्चात् तीन (पीतपद्म-शुक्ल) धर्म लेश्या हैं। 2. अप्रशस्त-प्रशस्त- प्रथम तीन अप्रशस्त पश्चात् तीन प्रशस्त। 3. संक्लिष्ट-असंक्लिष्ट- प्रथम तीन संक्लिष्ट परिणाम वाली तथा पश्चात् तीन असंक्लिष्ट परिणाम वाली। 4. दुर्गतिगामी-सुगतिगामी- (कृष्ण-नील-कापोत) दुर्गतिगामी पश्चात् तीन (पीत-पद्म-शुक्ल) सुगतिगामी।। 5. अविशुद्ध-विशुद्ध-परिणाम की अपेक्षा प्रथम तीन लेश्याएँ अविशुद्ध तथा पश्चात् तीन लेश्याएं विशुद्ध हैं। भाव लेश्या
भाव लेश्या आत्मा का अध्यवसाय या अन्त:करण की वृत्ति है। पं. सुखलाल जी के शब्दों में भावलेश्या आत्मा का मनोभाव विशेष है जो संक्लेश और योग से अनुगत हैं संक्लेश के तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम, मन्द, मन्दतर, मन्दतम आदि अनेक भेद होने से लेश्या अनेक प्रकार की हो जाती
मनोभावों में संक्लेश की न्यूनाधिकता अथवा मनोभावों की अशुभत्व से शुभत्व की ओर बढ़ने की स्थितियों के आधार पर ही उनके विभाग किए गए हैं। डॉ. सागरमल जी ने अप्रशस्त और प्रशस्त- इन द्विविध मनोयोगों के उनकी तारतम्यता के आधार पर छः भेद किए हैं1. कृष्णलेश्या- तीव्रतम अप्रशस्त मनोभाव 2. नीललेश्या- तीव्र अप्रशस्त मनोभाव 3. कापोत लेश्या- अप्रशस्त मनोभाव 4. तेजो लेश्या- प्रशस्त मनोभाव 5. पदमलेश्या- तीव्र प्रशस्त मनोभाव