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अनेकान्त 68/3, जुलाई-सितम्बर, 2015 मिथ्यात्व कहते हैं। जिस कर्म के उदय से दही एवं गुड़ के मिले हुए स्वाद के समान उभयरूप श्रद्धान होता है, उसे सम्यड्.मिथ्यात्व कहते हैं। श्री अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती कहते हैं___'दर्शनमोहनीयं चारित्रमोहनीयं चेति मोहनीयं द्विधा। तत्र मिथ्यात्वं सम्यड्. मिथ्यात्वं सम्यक्त्वप्रकृतिश्चेति दर्शनमोहनीयं त्रिधा। तत्रातत्त्वश्रद्धानकारणं मिथ्यात्वम्। तत्त्वातत्त्वश्रद्धानकारणं सम्यड्.मिथ्यात्वम्। तत्त्वार्थश्रद्धानरूपं सम्यग्दर्शनं चलमलिनमगाढं करोति यत्सा सम्यक्त्वप्रकृतिः।” ___ अर्थात् दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय ये दो मोहनीय के भेद हैं। उनमें मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व और सम्यक्त्व ये तीन दर्शनमोहनीय के भेद हैं। इन तीन भेदों में मिथ्यात्व वह है, जिससे तत्त्व की श्रद्धा न होकर विपरीत श्रद्धा हो। जिससे तत्त्व, अतत्त्व दोनों की श्रद्धा हो वह सम्यगमिथ्यात्व है। जो तत्त्वार्थ की श्रद्धा रूप सम्यग्दर्शन में चल, मलिन एवं अगाढ दोष उत्पन्न करे, वह सम्यक्त्वप्रकृति है। ___मोहनीय कर्म जीवन को सर्वाधिक प्रभावित करता है। यह संसार में सभी दु:खों का मूल है। घातिया कर्मों में शेष तीन तो अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार ज्ञान, दर्शन एवं शक्तिप्रकटीकरण में बाधक हैं, किन्तु मोहनीय तो जानने, देखने तथा सामर्थ्य होने पर भी तत्त्वश्रद्धान एवं सम्यक् आचरण नहीं होने देता है। मोहनीय कर्म के नष्ट हो जाने पर अन्य तीन घातिया कर्म तो स्वतः नष्ट हो जाते हैं और केवलज्ञान प्रकट हो जाता है।
किसी भी कर्म की मूल प्रकृतियों में अन्य कर्म प्रकृति रूप संक्रमण नही होता है, किन्तु किसी एक कर्म की एक उत्तरप्रकृति उसी कर्म की अन्य उत्तरप्रकृति में संक्रमित हो सकती है। यहाँ यह विशेष है कि आयु कर्म के समान मोहनीय कर्म अपनी उत्तरप्रकृति में संक्रमित नहीं होता है। जैसे नारक आयु अन्य मनुष्य आदि आयु में संक्रमित नहीं होती है, वैसे ही दर्शनमोहनीय एवं चारित्रमोहनीय की परस्पर संक्रमित नहीं हो सकते हैं। सर्वार्थसिद्धि में कहा गया है- “सर्वासां मूलप्रकृतीनां स्वमुखेनैवानुभवः। उत्तरप्रकृतीनां तुल्यजातीयानां परमुख नापि भवति आयुदर्शनचारित्रमोहवर्जनम्। न हि नरकायुर्मुखेन तिर्यगायुर्मनुष्यायुर्वा विपच्यते। नापि दर्शनमोहश्चारित्रमोहमुखेन, न चारित्रमोहो वा दर्शनमोहमुखेन। २०