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अनेकान्त 68/3, जुलाई-सितम्बर, 2015 द्रव्य की गणना होती है। इनमें से काल को छोड़कर शेष पाँच द्रव्य पंचास्तिकाय के नाम से जाने जाते हैं। पंचास्तिकाय की अवधारणा प्राचीन है, इसकी पुष्टि इसिभासियाइं में प्राप्त उल्लेख से होती है। इसमें षड्द्रव्यों का उल्लेख न होकर पंचास्तिकाय का उल्लेख हुआ है। पंचास्तिकाय के लिए भी लोक की भांति कहा गया है कि पंच अस्तिकाय कभी नहीं थे, ऐसा नहीं है, कभी नहीं हैं, ऐसा नहीं है तथा ये कभी नहीं होंगे, ऐसा भी नहीं है। ये ध्रुव, नित्य, शाश्वत, अक्षय, अव्यय एवं अवस्थित हैं।१८ षड् द्रव्यों में जीवास्तिकाय जीव है एवं शेष पाँच द्रव्य अजीव हैं।
___ पार्श्व अध्ययन में लोक चार प्रकार का कहा गया है-१. द्रव्यलोक, २. क्षेत्रलोक, ३. काललोक और ४. भावलोक। लोक आत्मस्वरूप में अवस्थित है। स्वामित्व की अपेक्षा से यह जीवों का लोक है, रचना की अपेक्षा से जीव और अजीव दोनों का लोक है। लोक का अस्तित्व अनादि अनन्त और पारिणामिक है। दुःख के कारण एवं उनसे मुक्ति :
भारतीय चिन्तन परम्परा में दुःख से मुक्ति प्रमुख प्रतिपाद्य रहा है। वस्तुतः दुःख से आत्यन्तिक मुक्ति ही मोक्ष है। प्रश्न यह है कि हमें दुःख क्यों होता है? इसिभासियाई में दु:ख के कारणों पर गहन विचार हुआ है। सामान्यतः अज्ञान को दु:ख का मूल माना जाता है। ऋषि गाथापतिपुत्र तरुण अज्ञान को ही परम दु:ख के रूप में प्रतिपादित करते हुए कहते हैं
अण्णाणं परमं दुक्खं, अण्णाणा जायते भयं।
अण्णाणमूलो संसारो, विविहो सव्वदेहिणं॥२०
अज्ञान परम दु:ख है। अज्ञान से भय उत्पन्न होता है। समस्त प्राणियों के लिए संसार-परम्परा का कारण अज्ञान ही है।
जैनदर्शन के अनुसार अज्ञान का मूल कारण 'मोह' है। इसलिए मोह को भी दु:ख का कारण कहा गया है। द्वितीय अध्ययन में ऋषि वज्जियपुत्त ऐसा ही कहते हैं-मोहमूलाणि दुक्खाणि, मोहमूलं च जम्मण।२१ सभी दुःखों के मूल में मोह है और मोह के कारण ही संसार में जन्म होता है।
जहाँ मोह होता है वहाँ कर्मबन्धन भी होता है और उन बद्धकर्मों का हमें फल भोगना होता है। इसलिए जब तक कर्म हैं तब तक दु:ख है। महाकाश्यप ऋषि इसी सत्य का उद्घाटन करते हुए कहते हैं-कम्ममूलाई