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अनेकान्त 68/3, जुलाई-सितम्बर, 2015 में कहा गया है कि हस्तछेदन, पादछेदन आदि विविध प्रकार के दुःख पूर्वकृत कर्मों से प्राप्त होते हैं।४ ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ ऋषि महाकाश्यप पापकर्मों को न करने की प्रेरणा कर रहे हैं।
___ कर्म की विभिन्न अवस्थाएँ बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्ता, अपकर्षण, उत्कर्षण, संक्रमण, निधत्त, निकाचना आदि हैं। महाकाश्यप अध्ययन में बद्ध, स्पृष्ट, निधत्त, उपक्रम, उत्केर, संक्रमण, निधत्त, निकाचना आदि अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है।४५
हरिगिरि अध्ययन में कहा गया है कि जिस प्रकार ध्वनि की प्रति ध्वनि होती है उसी प्रकार कर्म के अनुसार कान्ति, जाति, वय या अवस्था का निर्माण होता है।४६ जीव दो प्रकार की वेदनाओं का वेदन करते हैं। प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान यावत् मिथ्यादर्शनशल्य आदि 18 पाप करके जीव असाता या दुःख का वेदन करता है तथा प्राणातिपातविरमण यावत् मिथ्यादर्शन शल्य विरमण से जीव साता अथवा सुख का वेदन करता
कर्मों में प्रमुख मोहकर्म है। यह कर्मसेना का सेनापति है। मोह का नाश होने पर अन्य कर्मों का नाश हो जाता है। हरिगिरि ऋषि कहते हैं
छिन्नमूला जहा वल्ली, सुक्कमूलो जहा दुमो।
नट्ठमोहं तहा कम्म, सिण्णं वा हतणायक। जिस प्रकार जड़ से कटी हुई लता, सूखे हुए मूल वाला वृक्ष नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार मोह का नाश होने पर कर्मों का वैसे ही नाश हो जाता है जैसे सेनापति की हार होने पर सेना की हार हो जाती है।
कर्मास्रव को रोकने के लिए संवर का विधान है तथा पूर्व संचित कर्मों के क्षय के लिए निर्जरा का प्रतिपादन है। दकभाल ऋषि परिशाटन शब्द से निर्जरा को अभिव्यक्त करते हुए कहते हैं कि कर्म परिशाटन करने योग्य हैं। अज्ञानी जीव कर्मों का परिशाटन नहीं करते, ज्ञानी कर्मों का परिशाटन करते हैं, इसलिए ज्ञानी पुरुष कर्मों से वैसे ही लिप्त नहीं होते, जैसे पानी से कमल पत्र।८ पाव अध्ययन में कहा गया है कि असम्बुद्ध एवं कर्मास्रव का संवर नहीं करने वाला व्यक्ति चातुर्याम निग्रंथ धर्म में दीक्षित होकर भी आठ प्रकार की कर्मग्रंथियों का बंध करता है, वह नरक, तिर्यंच, मनुष्य एवं देवगति में उत्पन्न होकर कर्मफल प्राप्त करता है, किन्तु यदि वह सम्बुद्ध और संवृतकर्मा हो जाए तो अष्टविध कर्मों का बन्ध नहीं