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अनेकान्त 68/3, जुलाई-सितम्बर, 2015 निरन्तर नितनतन बनी रहे. कभी बाधित न हो वह सुख आत्यन्तिक सुख है। इस सुख के पश्चात् कभी दु:ख नहीं आता है। इन्द्रियजनित सुख के पश्चात् दुःख की प्राप्ति होती रहती है, अतः ऐसा सुख आत्यन्तिक सुख नहीं हो सकता। सम्भवतः साचिपुत्र (सारिपुत्र । स्वातिपुत्र) बौद्ध हैं, इसलिए वे कहते हैं कि प्रज्ञावान् साधक अनेकविध पदार्थों का त्यागकर कहीं भी लुब्ध नहीं होता, यह बुद्धों की शिक्षा है। नाना शब्द, रूप, गन्ध, रस, स्पर्श आदि विषयों के प्रति पण्डित साधक न तो राग करे, न द्वेष करे।३१ इसी प्रकार की चर्चा ऋषि वर्द्धमान (महावीर) अध्ययन में भी सम्प्राप्त होती है। वहाँ कहा गया है कि मुनि मनोज्ञ शब्द, रूप, गन्ध, रस एवं स्पर्श में राग नहीं करता तथा इनके अमनोज्ञ होने पर उनके प्रति द्वेष नहीं करता-मणुण्णम्मि ण रज्जेज्जा, ण पदुस्सेज्ज हि पावए।३२ इस प्रकार आचरण करने वाला साधक मुनि पापकर्म के स्रोत का निरोध करता है। श्रोत्रदि पाँच इन्द्रियाँ यदि दमन नहीं की जाएं तो संसार की हेतु बन जाती हैं और यदि उन्हें नियन्त्रित कर लिया जाए तो वे ही निर्वाण में सहायक हो जाती हैं। जिस प्रकार विनीत घोड़े सारथी को मार्ग पर ले जाते हैं, उसी प्रकार सम्यक् रूप से दान्त इन्द्रियाँ साधक को विषयों में प्रवृत्त नहीं करती।३३ जो साधक मन एवं कषायों को जीतकर सम्यक् प्रकार से तप करता है वह शुद्धात्मा उसी प्रकार दीप्त होता है जैसे हवन से अग्नि दीप्त होती है।३४
वैश्रमण अध्ययन में कहा गया है कि जो व्यक्ति सुख या साता के इच्छुक होकर पापकर्म करते हैं उनका पाप वैसे ही बढ़ता है, जैसे ऋण लेने वाले व्यक्ति का ऋण बढ़ता है। जो जीव वर्तमान सुख की खोज करते हैं, उसके परिणाम को नहीं देखते हैं वे बाद में उसी प्रकार दु:ख प्राप्त करते हैं, जैसे कांटे से बिंधी हुई मछली।३५ कर्म-सिद्धान्त :
इसिभासियाइं में कर्म-सिद्धान्त के इस नियम की भूरिशः पुष्टि हुई है कि जो जैसा अच्छा या बुरा कर्म करता है, उसके अनुसार उसे फल-प्राप्ति होती है। चतुर्थ अध्ययन में अंगर्षि कहते हैं-सुकडं दुक्कडं वावि कत्तारमणुगच्छति।३६ सुकृत हो या दुष्कृत सभी कर्म कर्ता का अनुगमन करते हैं, अर्थात् कर्ता को उनके फल की प्राप्ति होती है।