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अनेकान्त 68/3, जुलाई-सितम्बर, 2015
___चतुर्थ अध्ययन में अंगर्षि का कथन है कि जिस ज्ञान के द्वारा मैं अपने प्रकट या एकान्त में कृत आर्य या अनार्य कर्मों को जानता हूँ वही ज्ञान अचल है, ध्रुव है।७९
इसिभासियाई में हमें अनेकान्तवाद के बीज भी प्राप्त होते हैं। नवम अध्ययन 'महाकाश्यप' में संसारस्थ जीवों के लिए कहा गया है कि वे द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की दृष्टि से नित्यानित्य हैं
दव्वतो खेत्ततो चेव, कालतो भावतो तहा। _ णिच्चाणिच्चं तु विण्णेयं, संसारे सव्वदेहिणं
कतिपय अध्ययनों में जिन प्रज्ञप्त मार्ग की श्रेष्ठता का प्रतिपादन हुआ है। महाकाश्यप अध्ययन में कहा गया है
गंभीरं सव्वतोभदं, सव्वभावविभावणं।
धाण्णा जिणाहितं मग्गं, सम्मं वेदेति भावतो १ वे लोग धान्य हैं, जो जिनेन्द्रों द्वारा प्ररूपित गम्भीर, सर्वतोभद्र, सर्वपदार्थ प्रकाशक मार्ग को भावपूर्वक सम्यक् रूप से जानते हैं एवं आचरण करते हैं।
ग्रन्थ में जैन पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग वैदिक ऋषियों के मुख से भी हुआ है। उदाहरण के लिए उद्दालक ऋषि के अध्ययन में स्वयं के लिए त्रिगुप्ति से गुप्त, त्रिदण्ड से विरत, निःशल्य, अगारव, चतुर्विकथा से वर्जित, पाँच समितियों से समित, पाँच इन्द्रियों से संवृत, नवकोटि परिशुद्ध, उद्गम, उत्पादना एवं एषणा के दोषों से रहित विशेषणों का प्रयोग हुआ है।
इसिभासियाइं वस्तुतः एक महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक ग्रन्थ है, जिसको पढकर मेरे मन में जो भाव उठे हैं. उन्हें प्राकृत गाथाओं में प्रस्तुत कर रहा
मणो मे हरिसिओ जाओ पढिऊण इसिभासियाई। रिसीणां वयणाणि एयम्मि, सोहन्ति सुद्धभावेण॥
जइणा बोद्धा माहाणा य रिसिओ भवन्ति अरहता। अज्झत्तदोसनिवारणाय, उवएसा उवओगिणो॥ संपदायाभिनिवेसस्स, भावणा तत्थ वज्जिआ। सम्मादिट्ठीए भवइ सम्म, सव्वं भणितं अज्जरिसीहिं॥