________________
87
अनेकान्त 68/2, अप्रैल-जून, 2015 प्रायश्चित्तादि तप बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा नहीं रखते हैं। इसलिए इन्हें अभ्यन्तर तप कहते हैं। ६ अब इनका वर्णन किया जाता है। विनय :- विनीत होना विनय है, कषाय का इन्द्रियों का मर्दन करना विनय है अथवा विनय के योग्य गुरुजनों के विषय में यथायोग्य नम्रभाव रखना विनय है।" दर्शन, ज्ञान, तप, चारित्र उपचार विनय का पालन करने वाला मोक्ष का नायक कहा गया है। विनय, तप, दर्शन, ज्ञान, चारित्र, उपचार के भेद से चार प्रकार का है और तप को मिलाकर पांच प्रकार है। वैय्यावृत्य :- आपत्ति का प्रतिकार करना वै यावृत्य है।९ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, तप, ध्यान, अध्ययन आदि साधर्मियों के कार्य के लिए पुस्तक आदि उपकरणों को देना, शास्त्रों की व्याख्या करना, धर्मोपदेश देना तथा मुक्ति पूर्वक और भी साधर्मियों की सहायता करना तथा वह सहायता बिना किसी बदले की इच्छा के करना सो सब वै यावृत्य कहलाता है। मूलाचार में कहा है -
आइरियादिसु पंचसु सबालवुड्ढा उलेसु गच्छेसु।
वेज्जावच्चं वृत्तं कादव्वं सव्वसत्तीए।। मूलाचार ३८९
आचार्य आदि पांचों में बाल वृद्ध से सहित गच्छ में वै यावृत्य को कहा गया है, सो सर्व शक्ति से करना चाहिए।
तप और त्याग में आचार्यों ने शक्ति के अनुसार कहा है, किन्तु वै यावृत्ति में सर्वशक्ति से करने का विधान है। इससे वै यावृत्ति के विशेष महत्व को सूचित किया है। यहाँ विनय के बाद वैयावृत्य रखने का मुख्य कारण है कि अहंकारी किसी की सेवा नहीं कर सकता है। आचार्य वट्टकर और आचार्य उमास्वामी ने वै यावृत्य के दस भेद बतलाये हैं।१२ तपस्वियों की वै यावृत्ति का फल स्वर्ग मोक्ष की प्राप्ति है। प्रायश्चित :
आचार्य वट्टकेर लिखते हैं अपराध को प्राप्त हुआ जीव जिस तप के द्वारा अपने पूर्व संचित पापों से विशुद्ध हो जाता है, वह प्रायश्चित है, जिससे स्पष्ट तथा पूर्व के व्रतों से परिपूर्ण हो जाता है, वह तप भी प्रायश्चित कहलाता है। आचार्य श्री वीरसेन ने भी कहा है कि “संवेग और निर्वेद से युक्त, अपराध करने वाला साधु अपने अपराध का निराकरण करने के लिए