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अनेकान्त 68/2, अप्रैल-जून, 2015
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पांचवे स्थान पर वृत्तिपरिसंख्या छठे स्थान रख तत्त्वार्थसूत्र से भिन्नता अपनायी है। तत्त्वार्थसूत्र में अनशन, अवमौदर्य के बाद वृत्तिपरिसंख्यान का क्रम औचित्यपूर्ण प्रतीत होता है क्योंकि वृत्तिपरिसंख्यान का सम्बन्ध आहारचर्या से है। विवक्तशयासन के बाद कायक्लेश भी संगतिपूर्ण है । अब अनशन आदि तपों का स्वरूप समझ लेना भी आवश्यक है। अनशन - खाद्य, स्वाद्य, लेह्य और पेय इन चारों प्रकार के आहारों का सर्वथा परित्याग कर देना अनशन तप है। धवल, ९ तत्त्वार्थवार्तिक आदि ग्रन्थों में अनशन तप का वर्णन विस्तार से है। अवमौदर्य ::- भूख से एक ग्रास, ग्रास, तीन ग्रास आदि क्रम से भोजन घटाकर लेना, घटते घटते एक ग्रास मात्र लेना अवमौदर्य तप है। संयम की जागरूकता, दोष, प्रशम, संतोष स्वाध्याय और सुख की सिद्धि के लिए अवमौदर्य तप किया जाता है । २१
विविक्तशय्यासन :- अध्ययन और ध्यान में बाधा करने वाले कारणों के समूह से रहित विविक्त एकान्त एवं पवित्र स्थान में जो शयन / बैठना है विविक्तशय्यासन तप है । २२ विविक्त (एकान्त) में सोने-बैठने से ब्रह्मचर्य व्रत का पालन होता है, ध्यान और स्वाध्याय की वृद्धि होती है और गमनागमन के अभाव से जीवों की रक्षा होती है। २३
वर्तमान में मुनिजन इस विविक्तशय्यासन तप की उपेक्षा कर रहे हैं। उपेक्षा ही नहीं इस तप को स्वीकार ही नहीं कर रहे हैं। इसी से आश्रम या मठ अथवा स्वनाम से तीर्थ रूप आवासों का निर्माण कराकर रह रहे हैं। आवासों में सर्व सुविधाएं भी एकत्रित की जाती हैं, जिनके कारण वायुकायिक, अग्निकायिक, जलकायिक, पृथ्वीकायिक जीवों की विराधना होती है। इस आलेख के माध्यम से श्रावकों के लिए बताने का प्रयास है कि तपस्वियों की वसतिका कैसी होती है- शून्य घर, पहाड़ी की गुफा, वृक्ष का मूल, देवकुल, शिक्षाघर, धर्मायतनधर्मशाला किसी के द्वारा न बनाया गया स्थान, आरामघर, क्रीडा के लिए आये हुए के आवास के लिए बनाया गया ये सब विविक्त वसतिकाएँ है।२४ ऐसी वसतिका में रहने वाला साधक कलह आदि दोषों से दूर रहता है। ध्यान में अध्ययन में बाधा को प्राप्त नहीं होता । २५ जहाँ स्त्री, नपुंसक और पशु हो, उद्गम उत्पादन दोष से रहित वसतिका में साधु को रहना चाहिए । ६ मूलाचार में स्पष्ट कहा है कि प्रमत्त- अप्रमत्त मुनिराजों को ऐसे स्थानों पर नहीं रहना चाहिए जहाँ राग परिणाम बढ़ें और गृहस्थों का वास हो