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अनेकान्त 68/2, अप्रैल-जून, 2015 संबन्धी ग्रंथों में चारित्र का वर्णन किया है।आचार्य अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थसिद्धयुपाय के अन्त में चारित्र का वर्णन करते हुए तप को सेवन करने के लिए कहा है
चारित्रान्तर्भावात् तपोऽपि मोक्षांगमागमे गदितम्। अनिगूहितनिजवीर्यैस्तदपि निषेव्यं समाहितस्वान्तैः।।
___ पुरुषार्थ ०१९७ सम्यक्चारित्र में गर्भित होने से तप भी आगम में मोक्ष का अंग कहा गया है। इसलिए वह तप भी अपनी शक्ति को नहीं छिपाने वाले और अपने मन को वश में रखने वाले पुरुष के द्वारा सेवन योग्य है।
__आचार्य अमृतचन्द्रदेव का भाव है कि मोक्ष प्राप्ति के लिए तप भी विशेष हेतु है बिना तप अंगीकार के कर्मो की निर्जरा अशक्य है। मोक्षाभिलाषी को मन को वश में रखकर शक्ति को न छिपाकर तप अवश्य ही करना चाहिए। तत्त्वार्थसूत्रकार ने ‘तपसानिर्जरा च' इस सूत्र के द्वारा तप को संवर
और निर्जरा का मुख्य कारण बताया ही है। तप के बिना मोक्षमार्ग ही प्रशस्त नहीं होता। तप सम्यक्चारित्र में अन्तर्भूत है। चारित्र के बिना मुक्ति नहीं है
और तप के बिना चारित्र नहीं है। अतः तप महत्वपूर्ण है, जो लोग तप की उपेक्षा करते हैं, तप को भी क्रियाकाण्ड जैसे शब्द से व्यवहत करते हैं उन अज्ञानियों को संबोधन करते हुए आचार्य श्री विशुद्धसागर का कहना है कि तप को क्रिया काण्ड कहकर निज आत्मा के शत्रु मत बन जाना। जो संयम-चारित्र की अवहेलना कर रहा है, ज्ञान की अवहेलना कर रहा है, वह अपनी आत्मा का घात अपने द्वारा ही कर रहा है। ध्यान रखना कभी भी ऐसा मत कह देना कि तप तो क्रियाकाण्ड है। हाँ यदि वह तप परमार्थ से शून्य है, तो क्रियाकाण्ड है, क्योंकि जो व्रती शील व संयम को धारण करके भी परमार्थ से शून्य होते हैं, वे निर्वाण को प्राप्त नहीं कर पाते हैं। परमार्थ से शून्य होकर जो कुछ भी किया जायेगा, वह सब संसार का हेतु बनेगा। जो तप को मोक्षमार्ग नहीं मानता, वह जैन आगम से बाह्य यानि मिथ्यादृष्टि है।५
____ यहाँ आचार्य श्री तप के माध्यम से सम्यक् तप की चर्चा कर रहे हैं जो कषायों का उपशमन कर जैनाचार्यों द्वारा बताये गये तप की आराधना