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अनेकान्त 68/2, अप्रैल-जून, 2015
79 - भोगवाद की संस्कृति में, लिप्सा और अराजकता के इस बदलते परिवेश और पर्यावरण में महावीर ज्यादा प्रासंगिक बन गये हैं। महावीर को पाने की प्यास मनुष्यता का तकाजा है। विवेक/प्रज्ञा की आँख खोलें तो महावीर को सामने खड़ा पायेंगे और यदि संवेदना की/ विवेक की आंख बंद कर ली, तो सही मानिये, सामने खड़े हुए महावीर भी नहीं दिख सकेंगे। महावीर को खोजें और जियें अपने जीवन में।
___ - संगीत निर्देशक, केन्द्रीय विद्यालय, जशपुर (छ.ग.)
__ - अर्ह - - अहँ हमारा इष्ट है। यह अर्हत् का बीज मंत्र है। | - अर्हत्- जिसमें अपनी असीम क्षमताओं को प्रकट करने की अर्हता जाग जाती है और जो दूसरों की अर्हता, जगाने में लग जाता है। भगवान् महावीर अर्हत्' थे। अर्ह- तीर्थकर का प्रतीक है।
आनन्द-केन्द्र (थाइमस-ग्रन्थि) में अर्ह का ध्यान कर स्थाई आनंद का अनुभव करें। - अर्ह है - (i) हमारे अस्तित्व की, हमारे इष्टदेव की स्मृति।
(ii) यह है सहज आनन्द को जाग्रत करने वाला और मानसिक तनाव को दूर करने वाला, मनोकायिक रोगों से बचाने वाला।
(iii) इसके ध्यान से विकल्प शान्त होते हैं। अर्ह शब्द-(i) 'अ'- तैजस शक्ति का स्वरूप है।
(ii) 'र'- अग्नि-बीज है, इससे बुरे संस्कार नष्ट होते हैं।
(iii) 'ह'-आकाश-बीज है, जो चिदाकाश का अनुभव बढाता है। (iv) 'म्' - एक झंकार जो ज्ञान तंतु सक्रिय बनाता है।
- आचार्य श्री महाप्रज्ञ (जैनविश्वभारती. फर. 2011) से साभार