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अनेकान्त 68/2, अप्रैल-जून, 2015 चंदगुत्ति उववास करतउ
ता तहिं ठिउ गुरु-सेव करतउ। ता गुरुणा तहिं तासु जि भासिउ वच्छ णिसुणि जिण-सुत्ति पयासिउ। घत्ता- गुरुवयण-सुणेप्पिणु पय-पणवेप्पिणु गउ अडविहिं भिक्खाहिं मुणि। ता कुवि पुणु जक्खणि तवहु परिक्खणि आया तत्थ जि पवरगुणि।। ___ अर्थात् ऋषिकल्प-भद्रबाहु जब आत्म-ध्यान करते हुये वहाँ स्थित थे, तभी मध्यरात्रि में एक शब्द उत्पन्न हुआ (अर्थात् एक वाणी सुनाई दी) कि- "तुम्हारी निषिद्धिका (समाधिभूमि) यहाँ ही होगी। आकाशवाणी ने तुम्हारे लिये यही घोषणा की है"। | आकाशवाणी द्वारा अपनी आयु अल्प जानकर आचार्य भद्रबाहु विशाखनन्दी के नेतृत्व में साधुसंघ को चोल-देश की ओर भेज देते हैं। चन्द्रगुप्त गुरुसेवा के निमित्त वहीं रह जाता है। भद्रबाहु उसे कान्तार-चर्या के लिए आदेश देते हैं।
उस (आकाश) वाणी को सुनकर ऋषिकल्प-भद्रबाहु ने अपने निमित्त-ज्ञान से जान लिया कि "अपने पवित्र मुनिपद की आयु अब थोड़ी ही रह गयी है।" अतः उन्होंने श्रुतज्ञानी श्री विशाखनन्दि-मुनिपुंगव को संघ का आधार नायक आचार्य) बनाकर सबसे क्षमापण (क्षमा) कर संघ को विसर्जित कर दिया (आगे भेज दिया) और पावन महामुनि चन्द्रगुप्त उन्हीं ऋषिकल्प के पास यह सोचते हुये रह गये कि- "बारह वर्षों तक गुरुपद (चरणों) की सेवा करता हुआ इसी अटवी में मैं अपने समय को व्यतीत करता रहूँगा। जो शिष्य अपने गुरु के पदों की आराधना नहीं करता, वह तत्पश्चरण से शिव-साधना क्या करेगा?" इस प्रकार कहते हुए वे चन्द्रगुप्त-महामुनि परमार्थ से (निश्चय से) वहीं ठहर गये और उन विशाख आदि मुनीन्द्रों के साथ उन्होंने आगे का विहार नहीं किया। ___ ऋषि-भद्रबाहु जीवित रहने की आशा छोड़कर अनशन मॉडकर (अर्थात् चतुर्विध-आहार का सर्वथा आजीवन त्यागकर) वहीं कटवप्र के पर्वत-शिखर की गुफा में समाधिस्थ हो गये और चन्द्रगुप्त भी उपवास करते हुए तथा गुरु की सेवा करते हुये वहीं पर स्थित रहे। तभी गुरुश्री भद्रबाहु-स्वामी ने उन चन्द्रगुप्त-मुनि से कहा- "हे वत्स, सुनो, जिनसूत्र में ऐसा प्रकाशित किया गया है (स्पष्ट किया गया है) कि साधु को वन्य-प्राप्त में भी अपनी