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अनेकान्त 68/1, जनवरी-मार्च, 2015
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जैन वाङ्मय में अवधिज्ञान
___- पवन कुमार जैन (शोध छात्र)
भारतीय दार्शनिकों और पाश्चात्य दार्शनिकों ने अपने ग्रंथों में अतीन्द्रियज्ञान की चर्चा की है। जैनदर्शन में इसके तीन भेद हैं- अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान। उनमें से प्रथम अवधिज्ञान सीधा आत्मा से होने वाला ज्ञान है। इसमें इन्द्रिय एवं मन के सहयोग की आवश्यकता नहीं होती है, इसीलिए यह प्रत्यक्ष ज्ञान है। तत्त्वार्थसूत्र में इन्द्रिय एवं मन से होने वाले मति एवं श्रुतज्ञान को परोक्ष की श्रेणी में रखा गया है तथा जो ज्ञान सीधा आत्मा के द्वारा होता है उसे प्रत्यक्ष ज्ञान कहा है- 'आत्ममात्रसापेक्षं प्रत्यक्षम्' अवधिज्ञान का उल्लेख स्थानांगसूत्र, व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, प्रज्ञापनासूत्र आदि आगमों में मिलता है, किंतु वहाँ पर इसके स्वरूप के सम्बन्ध में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। किन्तु नंदीसूत्र में प्रत्यक्ष ज्ञान के भेदों में अवधिज्ञान को स्थान दिया गया है। इसी से ज्ञात होता है कि अवधिज्ञान सीधा आत्मा से होने वाला ज्ञान है।
'अवधि' शब्द का प्राकृत-अर्द्धमागधी रूप 'ओहि' है। अवधिज्ञान के लिए प्राकृत में 'ओहिणाण' शब्द का प्रयोग होता है। आत्मा इस ज्ञान के द्वारा रूपी पदार्थों को जानता है। इसलिए इसे प्रत्यक्ष कहते हैं, लेकिन सभी पदार्थों को नहीं जान पाने के कारण यह देश प्रत्यक्ष होता है।
‘अवधि' शब्द 'अव' और 'धि' से मिलकर बना है। इसमें 'अव' उपसर्ग है जिसके अनेक अर्थ होते हैं। यहाँ 'अव' उपसर्ग का अर्थ नीचे-नीचे, "धि' का अर्थ जानना। पूज्यपाद, मलयगिरि आदि आचार्यों ने 'अव' उपसर्ग का अर्थ अधः (नीचे) किया है। अकलंक ने इसको स्पष्ट किया है कि अवधि का विषय नीचे की ओर बहुत प्रमाण में होता है।' मलयगिरि ने 'अधो विस्तृतं वस्तु परिच्छिद्यते