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अनेकान्त 68/1, जनवरी-मार्च, 2015
पूज्यपाद और अकलंक के अनुसार मनुष्यों और तिर्यंचों में अवधिज्ञान की प्राप्ति में क्षयोपशम ही निमित्त भूत है भव नहीं, इसलिए इसे क्षायोपशमिक अवधिज्ञान कहते है। सम्यक्त्व से अधिष्ठित अणुव्रत
और महाव्रत गुण जिस अवधिज्ञान के कारण हैं वह गुणप्रत्यय अवधिज्ञान है। गुणप्रत्यय अवधिज्ञान शंख आदि चिन्हों से उत्पन्न होता है। अर्थात् नाभि से ऊपर शंख, पद्य, वज्र, स्वास्तिक, मच्छ, कलश आदि शुभ चिन्हों से युक्त आत्म प्रदेशों में स्थित अवधिज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्मों के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है। गुणप्रत्यय अवधिज्ञान असंयमी सम्यग्दृष्टि के सम्यग्दर्शन गुण के निमित्त से और संयतासंयत के संयमासंयम (देश संयम) गुणपूर्वक तथा संयत के संयम गुण के होने से होता है।
नंदीचूर्णिकार ने क्षयोपशम के दो अर्थ किए हैं- गुण के बिना होने वाला और गुण की प्रतिपत्ति से होने वाला क्षयोपशम।63 गुण के बिना होने वाले क्षयोपशम से उत्पन्न अवधिज्ञान के लिए चूर्णिकार ने दृष्टांत दिया कि आकाश बादलों से ढका हो, लेकिन हवा आदि से बीच में एक छिद्र हो गया, उस छिद्र में से सहज रूप से सूर्य की किरणे निकलती हैं और उससे द्रव्य (वस्तु) प्रकाशित होता है। वैसे ही अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम होने से सहज ही अवधिज्ञान की प्राप्ति होती है, वह गुण के बिना होने वाला क्षयोपशम है।
क्षयोपशम का दूसरा अर्थ है गुण की प्रतिपत्ति से होने वाला। क्षयोपशम अर्थात् उत्तरोत्तर चारित्र गुण की विशुद्धि होने से अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम होने से जो अवधिज्ञान उत्पन्न होता है वह गुण प्रतिपन्न अवधिज्ञान है यहाँ गुण शब्द चारित्र का द्योतक है अर्थात् गुणप्रत्यय अवधिज्ञान के लिए मूलगुण कारणभूत है, इसका समर्थन धवलाटीका,66 जिनभद्राणि, हरिभद्र,68 मलयगिरि ने किया है। मूलगुण पर्याप्त मनुष्य और तिर्यंच के ही होते हैं, अपर्याप्त मनुष्य और तिर्यच के नहीं।"
उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि गुणप्रत्यय अवधिज्ञान में गुण शब्द सम्यक्त्व से युक्त अणुव्रत और महाव्रतों को दर्शाने के लिए प्रयुक्त होता है। यदि हम क्षयोपशमिक अवधिज्ञान का प्रयोग करते हैं