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अनेकान्त 68/1, जनवरी-मार्च, 2015 समाग्नि धातुत्वमदोषविभ्रमो मलक्रियात्मेन्द्रियसुप्रसन्नता। मनः प्रसादश्च नरस्य सर्वदा तदेवमुक्तं व्यवहारजं खलु॥
अर्थात् मनुष्य के शरीर में स्थित अग्नि (जठराग्नि) का सम रहना (हीनाधिक नहीं होना), धातुओं की समता, वात आदि दोष का विकृत नहीं होना, मल मूत्रादि की विसर्जन क्रिया समुचित रूप से सम्पन्न होना, आत्मा, इन्द्रिय और मन का प्रसन्न रहना ये सब व्यवहार स्वास्थ्य के लक्षण हैं।
दूसरे प्रकार का यह व्यवहारिक स्वास्थ्य प्रथम पारमार्थिक स्वास्थ्य के अर्जन में सहायक होता है। व्यावहारिक स्वास्थ्य भौतिक होता है और उसका सम्बन्ध केवल शरीर व मन से है। शरीर की निरोगता तथा वात-पित्त-कफ इन तीनों दोषों की समस्थिति होना, रस, रक्तादि सप्त धातुओं की क्षय या वृद्धि होना (अविकृत अवस्था), स्वेद-मूत्र-पुरीष इन तीनों मलों की क्रिया प्राकृत रूप से सम्पन्न होना, जठराग्नि का प्राकृत अवस्था में होना, इन्द्रियों और मन की अविकलता तथा प्रसन्नता होना शारीरिक आरोग्य का परिचायक है। इसे ही व्यवहारिक स्वास्थ्य कहते हैं। यहाँ व्यवहारिक स्वास्थ्य के जो लक्षण बतलाए गए हैं वे सभी लक्षण आयुर्वेद शास्त्र में स्वस्थ पुरुष के बतलाए गए हैं। आयुर्वेद शास्त्र में भी इसी प्रकार के शारीरिक स्वास्थ्य का प्रतिपादन किया गया है। अष्टांग हृदय में आचार्य वाग्भट्ट कहते हैं
समदोषः समाग्निश्च समधातुमलक्रियः।
प्रसन्नात्मेन्द्रियमनः स्वस्थ इत्यभिधीयते॥ अर्थात् जिस पुरुष के तीनों दोष सम (अविकृत) अवस्था में हो, जाठराग्नि सम (अविकृत) अवस्था में हो, सात धातुओं (रस-रक्त-मांस-मेद-अस्थि-मज्जा-शुक्र) और तीन मलों (स्वेद-मूत्र-पुरीष) की क्रियाएं सम अवस्था में हों, जिसका आत्मा, इन्द्रिय और मन प्रसन्न (विकार रहित) हों वह पुरुष 'स्वस्थ कहलाता है।
इस प्रकार के आरोग्य या द्विविध स्वास्थ्य का प्रतिपादन मात्र आयुर्वेद शास्त्र में किया गया है। अतः यह आध्यात्मिकता से अनुप्राणित