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अनेकान्त 68/1, जनवरी-मार्च, 2015
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अर्थात् भगवान् जिनेन्द्र देव के द्वारा भव्य जीव मनुष्य का स्वास्थ्य दो प्रकार का बतलाया गया है- एक परमार्थ स्वास्थ्य और दूसरा व्यवहारज स्वास्थ्य। इनमें से प्रथम पारमार्थिक प्रधान होता है और दूसरा व्यवहारार्थिक स्वास्थ्य गौण है।
पूर्व में आयुर्वेद के अनुसार जो दो प्रकार का स्वास्थ्य-शारीरिक और मानसिक बतलाया गया है उसका समावेश व्यवहार स्वास्थ्य में किया गया है। पारमार्थिक स्वास्थ्य का निरूपण निम्न प्रकार किया है
अशेषकर्मक्षयज महाद्भुतं यदेतदात्यन्तिकमद्वितीयम्। अतीन्द्रियं प्रार्थितमर्थवेदिभिस्तदेतदुक्तं परमार्थनामकम्॥
अर्थात् आत्मा के सम्पूर्ण कर्मों के क्षय से उत्पन्न, अद्भुत, आत्यान्तिक एवं अद्वितीय, विद्वज्जनों द्वारा प्रार्थित जो अतीन्द्रियसुख है वह पारमार्थ स्वास्थ्य कहलाता है।
इसका तात्पर्य यह है कि ज्ञानावरणादि अष्टकर्मों का नाश होने से जो अविनाशी, अद्वितीय, इन्द्रियातीत, परमोत्कृष्ट आत्मीय सुख की अनुभूति होती है वही पारमार्थिक स्वास्थ्य होता है। इस प्रकार के अक्षय परमानन्द का अनुभव अलौकिक एवं दिव्य आध्यात्मिक सम्पदा का परिणाम है जिसके कारण यह जीव समस्त प्रकार की सांसारिक यातनाओं, कष्टों, दुखों एवं विभिन्न प्रकार के अशुभ परिणामों से ही मुक्त नहीं हो जाता है, अपितु वह समस्त प्रकार के कर्म बन्धनों का उच्छेद कर संसार परिभ्रमण से ही मुक्त हो जाता है। ऐसी स्थिति में अपना आयु कर्म शेष रहने के कारण वह जीव जब तक इस संसार में रहता है तब तक उसके लिए समस्त सांसारिक भौतिक सुखोपभोग तथा विविध प्रकार के भोग विलास तुच्छ एवं हेय हो जाते हैं। यही पारमार्थिक स्वास्थ्य है और इसी पारमार्थिक स्वास्थ्य की उपलब्धि करना जैन धर्म का लक्ष्य है। इस पारमार्थिक स्वास्थ्य का सम्बन्ध शरीर से न होकर शरीर में स्थित आत्मा से है। अतः इसे प्रधान या मुख्य माना गया है।
दूसरे प्रकार व्यवहारिक स्वास्थ्य है जो निम्न प्रकार का बतलाया
गया है