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अनेकान्त 68/2, अप्रैल-जून, 2015
श्रावक के षडावश्यक कर्म :
श्रावक के आवश्यक कर्मों पर समय-समय पर विचार होता रहा है। कुछ ने मुनियों के षडावश्यकों को ही यथाशक्ति श्रावकों के लिए करणीय माना है तो कुछ ने मुनियों के षडावश्यकों से भिन्न श्रावक के षडावश्यक स्वीकार किये हैं। आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी ने मुनियों के षडावश्यकों सामायिक, स्तवन, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग को ही अपनी पदवी एवं शक्ति के अनुसार निषेव्य कहा है। आचार्य अमितगति ने भी मुनियों के षडावश्यकों को हीश्रावकों के षडावश्यक स्वीकार किये।
श्री जिनसेनाचार्य ने आदिपुराण में श्रावक के षडावश्यक कर्मों का सर्वप्रथम उल्लेख किया है। वे कहते हैं कि भरत राजर्षि ने
'इज्यां वार्ता च दत्तिं च स्वाध्यायं संयमं तपः। श्रुतोपासकसूत्रत्वात् स तेभ्यः समुपादिशत्॥ कुलधर्मोऽयमित्येषामर्हत्पूजादिवर्णनम्।
तदा भरतराजर्षिरन्ववोचदनुक्रमात्॥७ अर्थात् भरत राजर्षि ने उपासकसूत्र (उपासकाध्ययन नामक सप्तम अंग) से उन व्रतियों के लिए इज्या (पूजा), वार्ता (विशुद्ध कृषि आदिक आजीविका), दत्ति (दान), स्वाध्याय, संयम और तप का उपदेश दिया। यह श्रावकों का कुलधर्म है - ऐसा विचार कर भरत राजर्षि ने अनुक्रम से अर्हत्पूजा आदि षट् कर्तव्यों का उपदेश दिया। यशस्तिलकचम्पूगत उपासकाध्ययन में श्री सोमदेवसूरि ने वार्ता के स्थान पर गुरूपास्ति को रखकर शेष पाँच को यथावत् जिनसेनाचार्य की तरह ही स्वीकार कर लिया
'देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः।
दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने। चामुण्डराय ने चारित्रसार में 'गृहस्थस्येज्या वार्ता दत्तिः स्वाध्यायः संयमः तप इत्यार्यषट्कर्माणि भवन्ति” कहकर श्री जिनसेनाचार्य के समान ही षट्कर्मों को स्वीकार किया है।
पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका में श्री सोमदेवसूरि के ही पद्य को यथावत् रखते हुए गृहस्थ के दैनिक षट् कर्म माने हैं।