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अनेकान्त 68/2, अप्रैल-जून, 2015 देता है, वह मूढ पुरुष आगामी सुख का स्वयं नाश करता है। जो गृहस्थाश्रम दान से रहित है, वह पत्थर की नाव के समान है तथा उस पर बैठने वाला मनुष्य नियम से संसार रूपी समुद्र में डूबता है। ___ आगे उन्होंने दयादान का वर्णन करते हुए साधर्मियों के प्रति प्रीति एवं जीवों के प्रति दया के अभाव में धर्म न रहने की बात कही है। दया धर्म रूपी वृक्ष की जड़, सर्वसम्पदाओं का धाम तथा गुणों की निधि है। जिस प्रकार हार में फूल सूत्राश्रित होते हैं, उसी प्रकार मनुष्य में गुण दयाश्रित रहते हैं। व्रतियों को चाहिए कि वे समस्त प्राणियों पर दया अवश्य करें। परपीडन से पाप की उत्पत्ति होती है।7।।
उपर्युक्त श्रावक के षडावश्यक कर्मों के विवेचन से हम अनायास ही इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका में 1. आचार्य पद्मनन्दि ने यशस्तिलकचम्पूकार श्री सोमदेवसूरि द्वारा वर्णित षडावश्यकों को यथावत् स्वीकार कर लिया है। 2. उन्होंने देवपूजा के स्थान पर देवदर्शन एवं देवस्तवन को भी स्वीकार किया है। 3. गुरुओं का सम्मान न करने वालों को वे अज्ञान रूपी अंधकार से आच्छन्न मानते हैं। 4. उनके अनुसार स्वाध्याय गुरुओं के पास रहकर सद्गुरुओं से सच्छात्रों का ही किया जाना चाहिए। 5. संयम में अष्टमूलगुणों का पालन तथा बारह व्रतों का धारण अनिवार्य है। 6. कम से कम अष्टमी-चतुर्दशी आदि पर्व तिथियों में यथायोग्य उपवास
आदि तप तपना श्रावक का कर्तव्य है। 7. गृहस्थों को यथाशक्ति पात्रों को चतुर्विध दान अवश्य देना चाहिए तथा साधर्मीजनों के प्रति प्रीति और दया योग्य जनों के प्रति दया अवश्य रखना चाहिए।
वर्तमान युग में इन आवश्यकों का यदि युगानुकूल न्यूनतम लक्ष्य निर्धारित किया जाये तो विश्व हिंसा की विभीषिका से बच सकता है।