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अनेकान्त 68/2, अप्रैल-जून, 2015 समझने और समझाने का प्रयत्न है। जैन दार्शनिकों ही यह दृढ़ मान्यता है कि अनैकान्तिक दृष्टि के द्वारा परस्पर विरोधी दार्शनिक अवधारणाओं के मध्य रहे हुए विरोध का परिहार करके उसमें समन्वय स्थापित किया जा सकता है। __ अनेकान्त को परिभाषित करते हुए आचार्य अकलंकदेव ने अपनी अष्टशती में लिखा है -
__सदसन्नित्यानित्यादि सर्वथैकान्तप्रतिक्षेपलक्ष्णोऽनेकान्तः।
अनेकान्त के स्वरूप का समर्थन करते हुए तत्त्वार्थसूत्र में कथन हैअर्पितानर्पितासिद्धे। अर्थात् प्रत्येक वस्तु अनेक धर्मात्मक है क्योंकि अर्पित-अर्पणा अर्थात् अपेक्षा से और अनर्पित-अनर्पणा अर्थात् अपेक्षान्तर से विरोधी स्वरूप सिद्ध होता है। अतएव एक ही वस्तु अनेक धर्मात्मक
और अनेक प्रकार के व्यवहार की विषय मानी गई है। ___ आज का राजनैतिक जगत् भी वैचारिक संकुचिता से परिपूर्ण है। पूंजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद, फासीवाद, नाजीवाद आदि अनेक राजनैतिक विचाराधाराएँ तथा राजतन्त्र, कुलतंत्र, अधिनायक तंत्र आदि अनेकानेक शासन प्रणालियाँ वर्तमान में प्रचलित हैं। सभी एक दूसरे की समाप्ति के लिए प्रयत्नशील हैं। विश्व के राष्ट्र खेमों में बंटे हुए हैं और प्रत्येक खेमे का अग्रणी राष्ट्र अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने हेतु दूसरे के विनाश में तत्पर है। आज का राजनैतिक संघर्ष मात्र आर्थिक हितों का संघर्ष न होकर वैचारिकता का भी संघर्ष है। आज अमेरिका, चीन और रूस अपनी वैचारिक प्रभुसत्ता के प्रभाव को बढ़ाने के लिए ही प्रतिस्पर्धा में लगे हुए हैं। एक दूसरे को नाम शेष करने की उनकी यह महत्वाकांक्षा कहीं मानव जाति को ही नाम शेष न कर दे। ___ अनेकान्त को आधार मानकर जैनधर्म या भारतीय प्रज्ञा के धनी आचार्य लोग संसार के झगड़ों को मिटा सकते हैं। दुनियाँ के सभी झगड़ों का कारण एकान्तवाद है। आग्रहवादिता और अहं वृत्ति से उपजी और अनसुलझी समस्याओं का समाधान अनेकान्तवाद में खोजा जा सकता है।
अनेकान्तवाद किसी भी समस्या का समाधान एकान्तिक नहीं, अपितु सापेक्षवाद के आधार पर प्रस्तुत करता है। अनेकांतवाद राजनैतिक जीवन के