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अनेकान्त 68/2, अप्रैल-जून, 2015
आदिपुराण में श्री जिनसेनाचार्य ने दान को श्रावकों के लिए आवश्यक मानते हुए दान के दयादत्ति, पात्रदत्ति, समदत्ति और अन्वयदत्ति ये चार भेद किये हैं। दयायोग्य दीन प्राणियों पर मन-वचन-काय की निर्मलता के साथ अनुकंपापूर्वक डर को दूर करना दयादत्ति है। साधुओं को नवधा भक्तिपूर्वक आहार, औषध आदि प्रदान करना पात्रदत्ति कहलाता है। साधर्मी बन्धुओं के लिए श्रद्धापूर्वक भूमि सुवर्ण आदि देने को समदत्ति कहा जाता है तथा अपने वंश की स्थिरता के लिए पुत्र को कुलधर्म एवं धन के साथ कुटुम्बरक्षा का भार सौंपना अन्वयदत्ति है। 12 इसका सकलदत्ति नाम से भी उल्लेख मिलता है।
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आगम दान देते समय पात्र, कुपात्र एवं अपात्र के प्रति सावधानी वर्तने का आदेश है। साधु उत्तम पात्र, व्रती श्रावक मध्यम पात्र तथा व्रतरहित सम्यग्दृष्टि को जघन्य पात्र कहा गया है। पञ्च पापों का सेवन करने वाला अपात्र है तथा मन्दकषायी गृहस्थ कुपात्र है। इनमें अपात्र को तो दान देना ही नहीं चाहिए। सागारधर्मामृत में पं. आशाधर जी ने लिखा है कि पात्र, आगम, विधि, द्रव्य, देश और काल का उल्लंघन नहीं करके यथाशक्ति दान देना चाहिए। अन्य सभी श्रावकाचारों में भी दान का वर्णन किया गया है।
श्रावकाचारसारोद्धार में आय के चार भाग करके प्रथम दो भाग भरण-पोषण में, तीसरा भाग भविष्य के लिए संचयार्थ तथा चौथा भाग धर्मार्थ व्यय करने वाले को उत्तम दाता माना गया है। छठा भाग दान देने वाले को मध्यम दाता तथा दसवाँ भाग दान देने वाले को जघन्य दाता कहा गया है। 4
पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका में यतीश्वरों को चतुर्विध दान का कथन करते हुए कहा गया है कि धर्मात्मा गृहस्थों को मुनि आदि उत्तम पात्रों में शक्ति के अनुसार दान अवश्य देना चाहिए। क्योंकि बिना दान के गृहस्थों की गृहस्थता निष्फल है। जो पुरुष निर्ग्रन्थ यतीश्वरों को आहार, औषध, अभय तथा शास्त्र चतुर्विध दान को नहीं देते हैं, उनके लिए घर जाल हैं तथा उनके बन्धन के लिए बनाये गये हैं। जिस गृहस्थ के द्वारा अभय, आहार, औषध एवं शास्त्र के दान करने पर ऋषियों को सुख होता है, वह गृहस्थ प्रशंसनीय क्यों नहीं होगा ? समर्थ होकर भी जो पुरुष आदरपूर्वक यतियों को दान नहीं