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अनेकान्त 68/2, अप्रैल-जून, 2015
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अणुव्रतानि पञ्चैव त्रिप्रकारं गुणवतम्।
शिक्षाव्रतानि चत्वारि द्वादशेति गृहिव्रते॥'३३ अर्थात् धर्मात्मा श्रावकों को एकदेश व्रत के अनुसार संयम भी अवश्य पालना चाहिए, जिससे उसका किया हुआ व्रत फलीभूत होवे। श्रावकों को मद्य, मांस, मधु तथा पांच उदुम्बर फलों का अवश्य त्याग कर देना चाहिए
और सम्यग्दर्शनपूर्वक इन आठों का त्याग ही गृहस्थों के आठ मूलगुण हैं। पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ये गृहस्थों के बारह व्रत हैं। । उक्त कथन से स्पष्ट है कि पद्मनन्दिपंचविंशतिका में आठ मूलगुणों एवं बारह व्रतों का संयम में समावेश किया गया है।
उमास्वामिश्रावकाचार तथा वामदेवकृत संस्कृत भावसंग्रह में प्राणियों की मन-वचन-काय से रक्षा करने को प्राणिसंयम तथा इन्द्रियों को विषय से रोकने को इन्द्रिय संयम कहते हुए संयम को दो प्रकार का स्वीकार किया गया है। ५. तप -
सभी जैनाचार्य इस विषय में एकमत हैं कि मुनियों के समान एकदेश रूप में श्रावकों को भी तप अवश्यकरणीय है। इसी कारण तप को श्रावक के षडावश्यकों में स्थान दिया गया है। तप की महिमा के विषय में भगवती आराधना में कहा गया है -
'तं णत्थि जंण लब्भइ तवसा सम्मं कएण पुरिसस्स।
अग्गीव तवं जलिओ कम्मतणं डहदि य तवग्गी॥'३५ अर्थात् संसार में ऐसा कोई भी पदार्थ नही है, जो निर्दोष तप से पुरुष को प्राप्त न हो सके। जिस प्रकार जलती हुई अग्नि तृण को जलाती है, उसी प्रकार तप रूपी अग्नि कर्मों रूपी तृण को जलाती है। ___ श्री अमृतचन्द्राचार्य ने पुरुषार्थसिद्धयुपाय में यथाशक्ति तप करने का उपदेश देते हुए उसे मोक्ष का कारण कहा है। वे लिखते हैं -
'चारित्रान्तर्भावात्तपोऽपि मोक्षागमागमे गदितम्।
अनिगृहितनिजवीर्यैस्तदपि निषेव्यं समाहितस्वान्तैः॥'२६ अर्थात् चारित्र में अन्तर्भाव होने से तप को भी आगम में मोक्ष का कारण कहा गया है, इसलिए अपने सामर्थ्य को नहीं छिपाकर श्रावकों को तप का भी सेवन करना चाहिए।