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अनेकान्त 68/2, अप्रैल-जून, 2015
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३. स्वाध्याय -
स्वाध्याय की गणना यद्यपि अन्तरंग तपों में की गई है, तथापि श्रावक के षडावश्यक कर्मों में तप के समाविष्ट होने पर भी स्वाध्याय का पृथक् समावेश स्वाध्याय की श्रेष्ठता को प्रदर्शित करता है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य का 'ण हि सज्झायसमो तवो' कथन इसी भाव की सार्थक अभिव्यक्ति है। जैन वाड्.मय में वाचना, पृच्छना, आम्नाय, अनुप्रेक्षा एवं धर्मोपदेश के भेद से स्वाध्याय के पांच भेद कहे हैं। वस्तुतः इन्हें स्वाध्याय के पांच अंग कहा जाना चाहिए। अपने स्वरूप का विचार होने से इसे स्वाध्याय कहा जाता है। ___ अमितगतिश्रावकाचार में पञ्चविध स्वाध्याय को मुक्ति चाहने वाले पुरुषों को आवश्यक कहा गया है -
'वाचनापृच्छनाम्नायनुप्रेक्षा धर्मदेशना।
स्वाध्यायः पञ्चधा कृत्यः पञ्चमी गतिमिच्छता॥'२५ पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका में स्वाध्याय की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है -
'ये पठन्ति न सच्छास्त्रं सद्गुरुप्रकटीकृतम्। तेऽन्धाः सचसुषीऽपीह सम्भाव्यन्ते मनीषिभिः॥ मन्ये न प्रायशस्तेषां कर्णाश्च हृदयानि च।
यैरभ्यासे गुरोः शास्त्रं न श्रुतं नावधारितम्॥२६ अर्थात् जो मनुष्य उत्तम गुरुओं से प्रकट किये गये सच्चे शास्त्रों को नहीं पढ़ते हैं, उन मनुष्यों को विद्वान् पुरुष नेत्रधारी होने पर भी अन्धे ही मानते हैं। जिन मनुष्यों ने गुरु के पास में रहकर न तो शास्त्र को सुना है और न ही हृदय में धारण किया है, उनके कान एवं मन नहीं है। ___पण्डितप्रवर आशाधर ने सागारधर्मामृत में स्वाध्याय के लिए स्वाध्यायशाला का भी महत्व वर्णित किया है। उनका कहना है कि शिष्यों की तरह गुरुओं की बुद्धि भी स्वाध्यायशाला के बिना ऊहापोह रहित होती हुई परिचित भी शास्त्र के विषय में या मोक्षमार्ग में अन्धे के समान आचरण करती है।” अतः स्थान-स्थान पर स्वाध्यायशालाओं की स्थापना करना चाहिए।
पण्डित मेधावी द्वारा विरचित धर्मसंग्रहश्रावकाचार में स्वाध्याय को अज्ञान का नाश करने वाला, उत्कृष्ट तप, ज्ञान एवं वैराग्यवर्धक, चित्त को