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अनेकान्त 68/2, अप्रैल-जून, 2015
आदिपुराण में इज्या (पूजा) के भेदों का विस्तृत निरूपण कर चुके थे, तथापि वह व्यवस्थित पद्धति - प्ररूपणा नहीं थी ।
२. गुरूपा
आदिपुराण के रचयिता श्री जिनसेनाचार्य और चारित्रसारकार श्री चामुण्डराय ने श्रावक के षडावश्यक कर्मों में गुरूपास्ति के स्थान पर वार्ता को स्थान दिया है, किन्तु अन्य सभी ने प्रायः गुरूपास्ति को श्रावक का अनिवार्य कृत्य प्रतिपादित किया है । सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति में गुरु की उपास्ति (उपासना) का माहात्म्य सर्वस्वीकृत है। श्री समन्तभद्राचार्य गुरु का स्वरूप एक तपस्वी के रूप में प्रतिपादित करते हुए कहते हैं -
'विषयाशावशातीतो निराम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥ १९
अर्थात् जो पञ्चेन्द्रियों की आशा के वश से रहित हो, खेती- पशुपालन आदि के आरम्भ से रहित हो, धन-धान्यादि परिग्रह से रहित हो, ज्ञानाभ्यास ध्यान-समाधि और तपश्चरण में निरत हो, ऐसा तपस्वी निर्ग्रन्थ गुरु प्रशंसनीय है।
गुरु की उपास्ति का वर्णन करते हुए श्री पद्मनन्दि आचार्य कहते हैं कि भव्य जीवों को प्रात:काल उठकर जिनेन्द्रदेव तथा गुरु का दर्शन करना चाहिए, भक्तिपूर्वक उनकी वन्दना करना चाहिए और धर्म का श्रवण करना चाहिए। इसके पश्चात् ही बुद्धिमान लोगों के द्वारा अन्य गृहकार्य किये जाने चाहिए। पुरुषार्थचतुष्टय में धर्म ही प्रथम पुरुषार्थ है।
गुरुपास्ति के महत्त्व की विवेचना करते हुए वे स्पष्टतया कहते हैं'गुरोरेव प्रसादेन लभ्यते ज्ञानलोचनम्। समस्तं दृश्यते येन हस्तरेखेव निस्तुषम् ॥ ये गुरुं नैव मन्यन्ते तदुपास्तिं न कुर्वते । अन्धकारो भवेत्तेषामुदितेऽपि दिवाकरे॥'
अर्थात् ज्ञान रूपी नेत्र निर्ग्रन्थ गुरुओं की कृपा से प्राप्त होता है, जिससे समस्त पदार्थ हाथ की रेखा के समान स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर हो जाते हैं। जो लोग गुरुओं को नहीं मानते हैं और उनकी उपासना नहीं करते हैं, उनके लिए तो सूर्य का उदय हो जाने पर भी अन्धकार ही है।