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अनेकान्त 68/2, अप्रैल-जून, 2015 करतलों सहित लोगों के द्वारा मानों इसी बहाने से नदी कह रही है- "मैं शुद्ध हूँ और अपने मार्ग से जाती हूँ। हे स्वामी ! मेरे ऊपर रूष्ट मत होइये।"
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इसी तरह महाकवि रइधू ने पासणाहचरिउ में सुखदायक वन का प्रसंग उपस्थित किया है
उव्वेइय चितइ सो वणि पत्तउगिरिकंदर भूरुहघणॐ। मिययणसोहिल्लउ हरि, कोहिल्लउखेयर - सुरहँ सुहावणउँ ॥ ११ श्रीधर द्वितीय (विवुध श्रीधर ) ने भविसयत्तचरिउ में प्रकृति चित्रण करते हुए लिखा है कितें बाहुडंडे कमलसिरिपुत्तेण रायवरहो जंतासु मयजलविलित्तासु सहासु लोंडतु हरिफलई तोंडतु । महावग्घु आलग्गु रोसेण परिभग्गु केत्थुवि सियालाई जुज्झति थूलाई तहे पासे णिज्झरइ सरंतई गिरिकन्दर- विवराई भरत || 2 यहाँ भाव यह है कि भविष्यदत्त भयानक वन में मदजल से भरे हुए हाथियों को देखता है। इस वन में कहीं पर शाखामृग (बंदर) निर्भय होकर डालियों से चिपके हुए थे, कहीं पर छोटी और कहीं पर आकाश को छूने वाली बड़ी बृक्ष शाखाओं पर लोटते हुए हरे फलों को तोड़ते हुए वानर दिखलाई दे रहे थे। कहीं पर पुष्ट शरीर वाले सुअर, कहीं पर विकराल काल के समान वन्य पशु दिखलाई पड़ रहे थे। उसी के पास में झरना प्रवाहित हो रहा था, जो पहाड़ की गुफाओं को अपने कल-कल शब्द से भर रहा था ।
दिट्ठाई तिरियाई बहुदुखभरियाई कित्थुवि महीयाहं गयणयलविगया हं केत्थवि वराहांह वलवंतरेहाहं । केत्थवि विरालई दिटठड़ करालाई
आज सहज रूप में वन - पशु दिखाई नहीं देते। वे शिकारियों और मांसाहारियों की भेंट चढ़ चुके हैं। कल-कल करते झरने कब के काल कवलित हो गये हैं। पहले तो नगर की समृद्धि भी प्रकृति सम्पन्नता से झाँकी जाती थी।
संदेश रासक (छन्द-183) में अब्दुल रहमान ने प्रकृति की उदासीनता को प्रिय के अरसिकपने से जोड़ते हुए लिखा है किकि तहि देसिणहु फुरइ जुन्ह णिसि णिम्मल चंदह। अह कलरउ न कुणति हंस फल सेवि रविंदह ।