________________
91
अनेकान्त 68/1, जनवरी-मार्च, 2015 है। इसका मुख्य उद्देश्य लोकोपकार करना है। मनुष्य के स्वास्थ्य की रक्षा हेतु विविध उपायों का निर्देश करना तथा औषध चिकित्सा के द्वारा विविध रोगों का शमन करना लोकोपकार ही है। मनुष्य के स्वास्थ्य की रक्षा हेतु विविध उपायों का निर्देश करना तथा औषध चिकित्सा के द्वारा विविध रोगों का शमन करना लोकोपकार ही है। पारमार्थिक स्वास्थ्य के लिए आत्मा के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करना लोकोपकार की चरम परिणति है। आयुर्वेद शास्त्र में चिकित्सा कार्य को पुण्यतम माना गया है। क्योंकि चिकित्सा के द्वारा रोग जनित उन असह्य वेदनाओं से मुक्ति मिलती है जो धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष साधन में विघ्न रूप होती है। श्री उग्रादित्याचार्य ने भी इस आयुर्वेद शास्त्र का कथन लोकोपकार करने के लिए ही किया है। यथा- “लोकोपकारकरणार्थमिदं ही शास्त्रम् अर्थात् यह वैद्यक शास्त्र लोक के प्रति उपकार करने के लिए है।
इससे स्पष्ट है कि जैनधर्म में लोकोपकार और आत्म कल्याण को सर्वोपरि स्थान दिया गया है। क्योंकि परोपकार के कारण मनुष्य एक ओर जहाँ दूसरों का हित करता है, दूसरी ओर पुण्य संचय के कारण अपना भी हित करता है।
******
संदर्भः 1. कल्याणकारक, 20/90 3. कल्याण कारक 20/29 5. कल्याण कारक, 2/3 7. अष्टांग हृदय, सूत्र स्थान
2. चरक संहिता, सूत्रस्थान, अ. 30 4. कल्याणकारक 2/2
6. कल्याण कारक, 2/4 ___8. कल्याण कारक, 1/24
- निदेशक, जैनायुर्वेद सहित्यानुसंधान केन्द्र
राजीव काम्पलेक्स के पास, अहिंसा मार्ग, इटारसी-४६१ १११ (म०प्र०) फोन- ०७५७२-४०४६८८